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भक्ति के नाम जो कर्मकाण्ड किए जाते हैं उस पर हरिशकंर परसाई कठोर व्यंग्य लिखा। व्यंग्यसम्राट ने ‘मसीहा और विपरीत भक्त’ शीर्षक का व्यंग्य लिखा उनकी किताब ऐसा भी सोचा जाता हैं में छपा था। किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने सन् 1985 में किया था।
पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक निबंध है- ‘घर जोड़ने की माया’। उन्होंने लिखा है कि जब अनुयायी घर जोड़ने की माया में फंसते हैं, तब अपने गुरु के उपदेशों से उलटा करने लगते है। कबीरदास मंत्र के विरोधी थे, पर कबरपंथियों ने दातून करने और शौच जाने के भी मंत्र बना लिये है।उन्हें ये भी लिखना था कि चेले उसी माया महाठगिनी के टक्कर में मठ की सम्पत्ति के लिए लड़ते हैं। यह भी कि किसी-किसी मठ के मठाधीश ब्राह्मण हो गये है, जिनके पाखंडो और कर्मकांडों के खिलाफ कबीर जिन्दगी-भर लड़ते रहे।
हरिशंकर परसाई भक्ति की असल भावना से भटक जाने पर एक दिलचस्प कहानी का भी उल्लेख अपने लेख में करते हैं।
एक साधु का तोता था। साधु की कुटी के सामने पेड़ था, जिस पर बहेलिये ने जाल बांध रखा था। साधु तोते को समझाते थे--
उस तरु पर है माया जाल, वहां न जाना मेरे लाल
तोते ने इसे रट लिया। साधु निश्चिंत हो गये। एक दिन तोता पेड़ पर गया और जाल में फंस गया। मगर वह बराबर बोल रहा था।
उस तरु पर है माया जाल, वहां न जाना मेरे लाल
मसीहा के अनुयायी अपने को कहने वालों का हाल उस तोते सरीखा हो जाता है। मसीहा, देवदूत, धर्म-प्रवर्तक वास्तव में विद्रोही और मुक्तिदाता होते हैं। एक भ्रष्ट धर्म और समाज व्यवस्था से लोगों को मुक्ति दिलाते हैं। उन कर्म-कांडों से मुक्त करते हैं जिनके गुलाम लोग हो गये है। पर यह इतिहास है कि शोषक शक्तियां फिर लोगों की अज्ञानी, अन्धविश्वासी और केवल कर्मकांडी बना देती है- उसी मुक्तिदाता मसीहा के नाम और पंथ पर।
हरिशंकर परसाई ईसाई धर्म से लेकर बौद्ध धर्म तक अपनी कलम से कटाक्ष कर रहे हैं, वो लिखते हैं।
बुद्ध का भी यही हाल हुआ। बुद्ध ने केवल धर्म के क्षेत्र में ‘पाखण्डों’ और अत्याचारों से मुक्ति दिलाई, बल्कि एक न्यायपूर्ण समतावादी समाज की रुपरेखा दी। एक स्वस्थ समाज। बुद्ध की दृष्टि वैज्ञानिक थी। पर अनुयायियों ने जिसने बुद्ध ने अपना दीपक आप बनने जैसी स्वतंत्र चिन्तन और लोकतांत्रिक भावना की बात कही थी, फिर क्या किया? दो भाग हुए- महायान और हीनयान।
हरिशंकर परिसाई विवेकानंद के नाम पर धार्मिक प्रचार करने वाले लोगों पर भी जमकर बरस रहे हैं, वह लिखते हैं।
स्वामी विवेकानन्द क्या थे? उनके विचार क्या थे? उद्देश्य क्या थे? उनके कर्म क्या थे? इन सब बातों का प्रचार नहीं है। विवेकानन्द क्रान्तिकारी थे-राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, क्रांतिकारी। वे एक वर्ग-चेतन क्रांतिकारी चिंतक थे। इसका प्रचार नहीं करके, यह प्रचार किया जा रहा है कि वे एक पुरातनवादी, गतिहीन, चेतनाहीन, वैदिक धर्म के व्याख्याता थे। जिन्होंने हमारे धर्म की पताका दुनिया में फहराई।अगर विवेकानंद आज होते तो वे उन कट्टर संप्रदायवादियों के सबसे बड़े विरोधी होते, जो उनकी जय बोलते हैं, उनकी प्रतिमा के जुलूस निकालते हैं, और उन पर अपने अधिकार मानते हैं।
परसाई जी ने विवेकानन्द को लेकर बहुत कुछ लिखा, वे लिखते हैं
विवेकानन्द केवल भारत के शोषितों के बारे में नहीं, दुनिया के शोषितों के बारे में सोचते थे। न्यूयार्क में एक सभा में उन्होंने कहा था- तुम गोरे अमेरिकी लोगों ने कालों की, नीग्रो को क्यों मुक्त किया? क्यों दास-प्रथा खत्म की? तुम समझते हो तुमने बड़ा मानवीय काम किया। तुम्हारा मन तो वही है। जब नीग्रो थे तो उनका मालिक उनका रक्षक होता था। जब उनका कोई रक्षक नहीं। गोरे लोग नीग्रो को सड़क पर यातना देकर मार डालते हैं। विवेकानंद घोर सम्राज्यवाद-विरोधी थे।