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जितना पुराना इतिहास पृथ्वी का है उससे ज्यादा पुराना इतिहास 'चापलूसी' का है। कमाल की बात ये है कि जो ‘इसे’ करता है, उसे ये दिखाई नहीं देती और जिसके लिए 'चापलूसी' की जा रही होती है उसे महसूस नहीं होती। इस नहीं दिखने वाली चीज को देखने की कला सिर्फ हरिशंकर परसाई में थी। व्यंग्यसम्राट हरिशकंर परसाई ने ‘उदात्त मन की आखिरी कमजोरी’ शीर्षक का एक व्यंग्य लिखा जोकि उनकी किताब 'ऐसा भी सोचा जाता हैं' में छपा था। किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने सन् 1985 में किया था।
एक किंचित् कवि, किंचित् समाजसेवी को मकान की जरूरत थी। मकान कलेक्टर आवंटित करता है। कलेक्टर के बारे में यह आम राय थी कि वह खुशामदपसंद नहीं है। वैसे जिसे खुशामद पसंद नहीं है, उसकी खुशामद यह कहकर की जा सकती है कि आप खुशामद पसंद नहीं करते हैं। ऐसा शेक्सपीअर के किसी नाटक में है।बहरहाल, इन सज्जन को मालूम हुआ कि कलेक्टर कुछ वह लिखता है, जिसे कविता कहते हैं।उसने एक काव्य गोष्ठी आयोजित की जिसमें कलेक्टर को आमंत्रित करने पहुंच गया। कलेक्टर ने कहा- नहीं मैं कोई कवि नहीं हूं। इन्होंने कहा- आप स्वंय तो अपने काव्य को पहचानेंगे नहीं। आप कवि-आलोचकों तक अपनी कविता आने दीजिए।
हरिशकंर परसाई लिखते हैं कि न न करते हुए भी इस तरह से खुशामद की जाती है। अपने लेख में वो चापलूसी के और तरीके भी बता रहे हैं।
न जाने क्यों कुछ लोग यश के इच्छुक लोग अपने क्षेत्र के बाहर का क्षेत्र चुनते हैं, तो वह साहित्य का क्षेत्र होता है। नाम तो गर्मी में प्याऊ खोल देने से भी होता है- ‘सेठ गोवर्धनदास की प्याऊ’। जो पानी पीते हैं वो गोवर्धनदास को बड़ा दयालु आदमी मानते हैं पता नहीं धनवान लोग सार्वजनिक शौचालय क्यों नहीं बनवाते। सेठ गोवर्धनदास शौचालय जैसा मैंने कोई नहीं देखा। अधिक प्रसिद्धी शौचालय बनवाने से मिलेगी शमशान में तो किन्ही सेठ गोवर्धन के कुएं और ‘शेड’ देखे हैं। प्रसिद्धी के लिए छोटे और बड़े लोग साहित्य चुनते हैं। साहित्य में भी कविता। कविता मन से लोग सुनते हैं और पत्र में छपती है, साहित्य में तो कई लोगों की नजर के सामने नाम आता है। कविता लिखना लोग बहुत सरल समझते हैं।
बड़े-बड़े अफसर, सचिव, ओहदेदार जिनकी ठाठ की जिंदगी है, रौबदाब हैं। चाहते हैं कि उनकी कविताएं छप जाएं। ये जब अपनी कविताएं लेकर किसी कवि या संपादक के पास पहुंचते हैं तो इनके चेहके पर भूखे भिखारी के चेहरे से अधिक दीनता होती है। जिन साहब से दफ्तर है, जिनके आतंक के कारण कोई उनकी राह में नहीं आता, वे जब अपनी कविताएं लेकर किसी कवि के पास पहुंचते हैं, तो कितने दीन, दयनीय हो जाते हैं। मुझसे भी ऐसे लोग मिलते रहते हैं और कई बार उनकी दीनता से मैं द्रवित हो जाता हूं। मुझसे बनता तो मैं अच्छी कविताएं लिखकर उनके नाम से छपवा देता। शुरू में मैने दो-तीन कविताएं लिखी थी। पर मैं समझ गया कि कविता लिखना मुझे नहीं आता। यह कोशिश बेवकूफी है। कुछ लोगों को यह बात कभी समझ में नहीं आता और वह जिंदगी भर यह बेवकूफी करते जाते हैं।
अपने लेख में परसाई जी ने खुद के साथ हुए मामलों का भी उल्लेख किया है।
एक बेचारे की हालत मुझे याद है। मैं भोपाल में एक मित्र के यहां ठहरा था। वह सेवेर कार से उतरे। मुझे परिचय दिया और कहा- दोपहर का भोजन मेरे घर कीजिए। मैंने इनकार कर दिया। उन्होंने जेब से कविताएं निकालकर कहा- मैं कविता लिखता हूं। उन्हें कहीं छपवा दीजिए। मैंने देखा, वह कविताएं नहीं थी। उनका परिचय पूछा। वह बीमा कंपनी में बड़े अफसर थे। वह शाम को फिर आ गए। बोले-रात का भोजन मेरे साथ कीजिए। मैंने फिर मना किया- वे दीन भाव से बोले। मेरे कविताएं किसी पत्र में छपा दें। मैंने हां-हूं किया। दूसरे दिन फिर वह कविताएं छपाने आ गए। मैंने उनसे कहा कि आपकी अच्छी नौकरी है। बहुत वेतन है। बंगला है। कार है। बीवी-बच्चे हैं। अच्छा खाते हैं, अच्छा पहनते हैं। आपके पास सुखी और संतुष्ट रहने के लिए सबकुछ है। पर यह कविता आपको दुखी रखती है। यह आपकी दुश्मन है। इसे छोड़ दीजिए। फिर आप जैसे जमे हुए, सम्पन्न, इज्जतदार आदमी को साहित्य में नहीं पड़ना चाहिए। साहित्य हम जैसे लोग करते हैं, जिनकी न नौकरी, न घर, न बीवी, न बच्चे। कविता-अविता निकम्मे लफंगे लोगों के लिए है। वे फिर भी कुछ भुनभुनाते रहे पर मेरा पिण्ड छूट गया।
वो लिखते हैं कुछ लोगों को अपना नाम पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने का शौक पागलपन की हद तक रहता है। उन्होंने अपने कुछ ऐसे भी अनुभवों का जिक्र किया है।
एक बड़े नेता के सचिव ने मुझे बताया। भैया साहब को नाम छपाने का पागलपन सा था। उनके जवान लड़के की मृत्यु हुई। वे शव के पास बैठे रोते रहे। होश खो बैठे थे। कहते थे कि मैं भी, बेटे के साथ चिता में जल जाउंगा। तभी वह उठे और मुझे दूसरे कमरे में लेकर गए। कहा- जिन जिन अखबारों में यह समाचार छपे उन्हें लेकर फाइल बना लेना। शोक संदेश भी छपेंगे। उन अखबारों की भी फाइल बना लेना देखना कोई छूट नहीं जाए।
हरिशकंर परसाई ने जवाहरलाल नेहरू पर भी कटाक्ष किया, वह उन्हें 'भारतरत्न' सम्मान लेने पर लिखते हैं।
जवाहर लाल नेहरू बहुत उदात्त मन के थे पर जब वह प्रधानमंत्री थे, 'भारतरत्न' सम्मान ले लिया। वह मुझे अच्छा नहीं लगा। भारतरत्न सरकार देती है। नेहरू सरकार थे। उन्होंने अपने को ही भारतरत्न कर लिया। फिर एक रुपये के सिक्के पर उनका चेहरा अंकित था। वह एडवर्ड आठवें का रुपये मालूम होता था। नेहरू इसे रोक सकते थे।
हरिशकंर परसाई एक प्रकार के टाइम केप्सूल का जिक्र कर रहे हैं। वो लिखते हैं कि लोग भविष्य के लिए कुछ काम ऐसे करते थे जो टाइम केप्सूल की तरह होते थे। प्रस्तुत लाइनों से समझें कि टाइम केप्सूल क्या होता है।
सन् 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी में दिल्ली में टाइम केप्सूल गड़वाया। वह आपातकाल था।1977 के चुनाव में इन्दिरा जी हार गईं। जनता पार्टी की सरकार बनी। तब यह बात चली-मैडम ने इतिहास में भी अपने को अमर करने के लिए टाइम केप्सूल गड़वा दिया। इसमें नेहरू परिवार का यशगान होगा। टाइम केप्सूल जनता पार्टी सरकार ने निकलवाया। कुल तीन हजार शब्दों का हमारे युग का इतिहास था। उसमें किसी का नाम नहीं था-महात्मा गांधी का भी नहीं।