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के पी सक्सेना का व्यंग्य: चल भई शेरू...दुलकी ले ले

Updated Tue, 21 Nov 2017 05:42 PM IST
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K P Saxena
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महान व्यंग्यकार के पी सक्सेना ने बढ़ती आबादी और उससे भी ज्यादा बढ़ती कारों की संख्या को लेकर एक मजेदार व्यंग्य लिखा। 30 जून 2013 को लिखा गया ये व्यंग्य भीड़-भाड़ वाले लखनऊ शहर में अकेले खड़े किसी तांगे की तरह लगेगा। जो अपनी मस्तानी चाल से लोगों को उनकी मंजिलों तक पहुंचाता है। इस लेख को पढ़ने के बाद आपका मन भी तांगे की सवारी करने के लिए मचल उठेगा। 

कोई 35-40 साल पहले सिप्पी की शोले... शोले में तांगा, तांगे में बसंती... बसंती की धन्नो.. आगे बीरू, पीछे पसरे हुए जय। बसंती धारा प्रवाह बोलती 'यों कि तुम पूछोगे तुम्हारा नाम क्या है बसंती। धन्नो का तांगा देश के दिलो-दिमाग पर टिक-टिक करने लगा। मगर जिसने 50-60 वर्ष पहले के नौशे जैसे सजे तांगे देखे इस शहर के, उसके आगे धन्नो बसंती माइनस। छमाछम घुंघरू, टपाटप रफ्तार। तब इस शहर में न रिक्शे थे न बसें। न टेम्पो न ऑटो।

घर घर की सवारी थी साइकिल। 'रैले, फिलिप्स, हरकुलिस। घर-द्वार के साथ कहीं जाना हो तो गरीबामऊ खडख़ड़े या इक्के। खडख़ड़ों में न छत न सीट, जिधर चाहो लद लो घर भर की रेजगारी (बाल-बच्चे) इक्के के छोटे से गदेले पर सात-आठ सवारी। जैसे बने लटक लो। दो पैसे सवारी पर अमीनाबाद से नक्खास, चौक से डालीगंज। अलबत्ता शरीफ शुरफा और साफ-सुथरी टोपी वालों के तईं तांगा। दो आने सवारी अमीनाबाद टू चारबाग। पांच सवारी (तीन पीछे, दो आगे) से ज्यादा लेंगे नहीं वरना घोड़ा बुरा मान जाएगा।

अब इन तांगों की सजावट, नफासत और अंदाज का जिक्र करने बैठूं तो अपनी कसम फिर से जवान होना पड़े। हर तांगा फोटो खींचने लायक। पीतल का 'बम  (दोनों साइड के डंडे) और छड़ें सोने जैसी चमकती हुईं। छत से झूलते घुंघरू, मोती और मखमली फुदने। घोड़े के गले में किलो भर सजावट। नर्म काले चमड़े की चमचमाती सीटें। कोचवान सवारी से पहले पूछ ले कि 'दुलकी’ चलें या 'सरपट’। दुलकी मतलब मजे-मजे तफरीह लेते हुए धीमी चाल। ट्रेन पकडऩी हो। अस्पताल पहुंचना हो तो तेज सरपट। घोड़े से बोल देते थे कि चल भई शेरू दुलकी में...। तांगे के पहिये की छड़ों में चाबुक फंसाकर किड़-किड़... किड़ किड़ आवाज। तांगे का हॉर्न समझ लो आप। सवारी का रुख और टाइप देखकर बयानबाजी शुरू। अब हुजूर इसी तांगे की पिछली सीट पर मजाज लखनवी को लिटाकर छाछ कुआं ले गए थे। नशे में धुत थे जनाब। एक हाथ से पीछे उन्हें संभाला कि कहीं लुढ़क न पड़ें। एक हाथ से तांगा। म्यूजिक वाले अपने नौशाद साहब लो, गजल वाले तलत भई लो। इस शहर की रौनक थे। हमारे तांगे को इज्जत बख्श चुके थे हुजूर। 

पूज्य गुरुवर पं. अमृत लाल नागर बताते थे किशोर साहू, मोतीलाल, बलराज साहनी, मोहम्मद रफी, प्राण, भारत भूषण आदि को इन झमाझम तांगों में सवारी का लुत्फ लेते देखा है। स्वयं मैंने गुरुदत्त, राजेंद्र कुमार, जॉनी वाकर, रहमान को तांगों में देखा है। घसियारी मंडी के शम्सुद्दीन तांगे वाले को मैंने करीब से देखा है। रोजे नमाज के पाबंद। कहते थे, लल्ला भय्या, तीन फेरियां चौक, चारबाग की लगा लीं बन गए तीन साढ़े तीन रुपये। शेरू (घोड़ा) और घर के खर्च को काफी। बाकी आराम और अल्लाह का नाम। इन इक्के तांगे वालों की हाजिर जवाबी  ऐसी कि अच्छे-अच्छे मात हो जाएं। बेहद, मोटी सवारी अठन्नी देने को राजी न थी, चवन्नी दे रही थी। तांगे वाला बोला-ठीक है। दो दफे में पहुंचा दूंगा। एक और मौके पर एक बुजुर्ग महिला किराये पर शम्सुद्दीन से भिड़ गई। चच्चा बोले-अम्मा धीरे बोलो, घोड़े ने सुन लिया तो दुलत्ती फेंकने लगेगा। छोकरों को डांटते, तांगे से दूर रहो। एक पैसे की मूंगफलियां टूंगते पैदल रकाबगंज निकल लो। 

शहर में जगह-जगह म्यूनिसपलिटी  की तरफ से पक्की चरही (हौजें) बनी रहती थीं। साफ पानी से भरी हुई। भिश्ती (पानी वाले) इन्हें लबालब भरा रखते और तांगे वालों से पैसा-दो पैसा टिप पा जाते। घोड़े ने प्यास बुझाई, आगे बढ़ गया। डालीगंज, चौक, चारबाग, अमीनाबाद और नक्खास में तांगों के अड्डे हुआ करते थे। यहीं घोड़ों के पैरों में नाल ठोकने वाले लोहारों का धंधा चलता था। घोड़ों के लिए हरी घास के पोले और तस्लों में भीगे चने बिकते थे। वहीं तांगे वालों के तईं लइया, पट्टी, रामदाने केलड्डू और गुड़ से बनी दूसरी मिठाइयां उपलब्ध रहती थीं। शहर में कारें गिनी-चुनी कहीं दस मिनट में एक गुजर गई। ज्यादा कारें सरकारी अमले की होती थीं। प्राइवेट कारें शहर के कुछेक रईसोंं की या बचे-खुचे नवाबों के बिगड़े शाहजादों की।

किस्सा कोताह जनाब, जह सब तब था जब इसी लखनऊ के सीने पर साफ-सुथरी रपारप सड़कें थीं, तहजीब थी, भीड़ भी। धक्का-मुक्की न थी और घोड़ों की दुलकी टापें एक म्यूजिक सा छेड़ा करतीं। मस्त तांगेवाला कान पर एक हाथ रखकर अलापता था-मेरे मौला बुला लो... मदीने मुझे...।

वक्त की अंगुलियों में थमे ब्रश ने लखनऊ की तस्वीर के रंग ही बदल दिए। बेतहाशा बढ़ी आबादी। शहर ने मीलों दूर-दूर तक बांहें पसार लीं। इतनी कारें कि कभी-कभी लगता है यहां इंसान कम हैं, कारें ज्यादा। हर रोज का अखबार सड़क पर भिड़ंत और दुर्घटना की खबरें उगल देता है। पाइप लाइन के तर्ईं महीनों गहरी खुदी पड़ीं सड़कें... मिट्टी के पहाड़, जरा सा चूके और जीते जी कब्र में समा गए। आपकी कसम, रोना आता है। यह वही शहर है क्या जहां मैंने तांगों के घुंघरू सुने थे? शाम के समय की ट्रैफिक से मुचैटा लेकर मेरी उम्र का कोई सड़क पार करके दिखा दे तो पेंशन का कुछ हिस्सा उसके नाम। मैं बूढ़ा क्या हुआ कि शहर जरूरत से ज्यादा जवान हो गया। जिन गलियों में पला-बढ़ा, उनकी पहचान खत्म हो गई। ऊंचे-ऊंचे स्काई स्क्रपर्स खुदा से बातेंं करने लगे। तहजीब और इंसानियत को बेचकर नया शहर खरीद लिया। न चच्चा, न मामा, न मौसा, न फूफा या ताऊ। सबको एक शब्द, अंकल मेंं समेट लिया। शायद लखनऊ के बारे में ही कोई लिख गया-तेरी सूरत से नहीं मिलती कोई भी सूरत, हम जहां में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।
 

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