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ये रचना मशहूर व्यंग्यकार के. पी. सक्सेना ने मई 2013 को लिखी थी। उनकी इस रचना को पढ़कर आपकी आंखों के सामने लखनऊ के बाजारों की तस्वीरें दौड़ने लगेंगी, हमारी कोशिश है कि देश के मशहूर व्यंग्यकारों की रचनाओं से देश के युवाओं को रूबरू कराया जाए।
अभी मैं उम्र के बस्ते में यादों के पुराने कागज टटोल ही रहा था कि कबीरदास याद आ गए। शब्दों के जादूगर थे कबीर! शब्द के बारे में ही कहा है- शब्द सम्हारे बोलिये, शब्द के हाथ न पांव.... एक शब्द औषधि बने, एक शब्द करे घाव! ऐसे ही चुने हुए शब्दों से बनती हैं पंक्तियां.... पंक्तियों से आवाजें और इन्हीं महीन रेशमी आवाजों से गूंजता था मेरे शहर का अमीनाबाद व नजीराबाद।
तब मैं गणेशगंज में रहता था। घुमंतू आदत थी। हर शाम अमीनाबाद में कुछ खाते-चखते रहना। एक चवन्नी जेब में पड़ी हो, काफी है एक शाम जीने के लिए। जायकों से आवाजें लहर लेती थीं। एक से एक नफीस जुमले... ठेलेवालों, फेरीवालों, खोमचेवालों और फुटपाथियों की तैरती आवाजें। दिल के टेप-रिकॉर्डर में कैद करके रखने लायक वह आवाजें क्या फना हुईं... अमीनाबाद का सुहाग धुंधला पड़ गया जनाब।
इधर आइए बरामदे की नुक्कड़ पर, जहां आज बाटा और घड़ीसाज की दुकान है सरेशाम एक आवाज उठती थी, 'संभल के जाइयो.. नजर न लगे... आ गई हरी धन्नो बहारदार। शहर में कोई नया हो तो समझे कोई हसीन औरत तशरीफ लाई है... पर नहीं। पीतल के बड़े चमचमाते थाल में सजे पूरे धनिये की चटनी में लिपटे उबले आलू। खुदा जाने उस चटनी के मसालों का क्या फॉर्मूला था कि खाने वाला मस्त। खुद खाए, पत्ते के दोने में घर ले गए। पैसे में चार। खोमचे वाले लल्लाराम कान पर हाथ रखकर दूसरी आवाज फेंकते-घर भर खाओ, मोहल्ले में बांटो। मसाले के दाम आलू इनाम। घंटे भर में थाल साफ, लल्ला राम बैक टू पवेलियन।
उधर, बैंक वाले बरामदे से एक खलीफा चोगा पहने हाथ में छोटी शीशियां... 'लगा लो प्यारी आंखों में यह बम्बू शाह का सूरमा। बाप लगाए बेटे को लंदन तक नजर आए। शीशी के दाम सलाई इनाम। रेट फकत एक इकन्नी। आज गुस्ताखी माफ, किसी नौजवान से पूछूं कि सुरमा क्या होता है तो बगलें झांकने लगे। छह बरस की कच्ची उम्र में टीवी की बदौलत आंख पर चश्मा चढ़ गया...।
खैर एक तरफ से पहले घंटी टुनटुनाती है, फिर आवाज आती है-'क्या आन-बान और शान, गर्मी जाए जापान, एक कुलिया पीयो छह डकारे फेंको। बनी रहे तरावट जान, लू का मिटे नामो निशान। आम का पना। पैसे में दो कुलिया। मई हो या जून... तबीयत देहरादून। ठेले पे मटका, मटके पर सुर्ख कपड़ा, गले में सजी पुदीने की ताजी पत्तियों और नींबूओं की माला। इर्द-गिर्द भीड़ जमा। कुलिया-कुलिया ठंडा पना।
रॉयल सिनेमा (अब मेहरा) जाने वाली सड़क से तरन्नुम उठता है- 'ठंडक कश्मीर का महक लखनऊ की। बरफ की चुस्की मारो... तब बाजार का हुस्न निहारो। एक प्याली चुस्की बाकी महीन बरफ से तबीयत मारे तरावट के पिरसीडेंड (प्रेसीडेंट) साहब का मुगल गार्डन न हो जाए तो इकन्नी हमारी तरफ से। ठेले पर घिसी बर्फ पर रंगीन बोतलों से टपकता शरबत। छोटे से छकड़ा ग्रामोफोन पर सहगल के रिकॉर्ड चालू। घिसा हुआ, बस मैं... मैं... सुनाई दे रही है। मशीन पर खर्र खर्र घिसती बरफ। जियो राजा....।
दवाओं की दुकानोंं की तरफ आओ, एक सुरीली आवाज... 'मैंने लाखों के बोल सहे हसीना तेरे लिए। हाय ये सब्ज बिजलियां... लैला की अंगुलियां मजनूं की पसलियां, लखनऊ की ककडियां। हवलदार जी, एक नोश फरमाओ परसों तक दरोगा हो जाओ। कराची से तार आया ककडियों को कराची ले आओ, हम बोले, धात-लुच्चे, अमीनाबाद तो मरने के बाद ही छूटेगा। ककड़ी पर शहर निसार पैसे की चार। नमक फ्री। हट के खड़े हो लौंडे... ककड़ी शरमा रही है। हटो...बचो... झेलते कदम नजीराबाद की तरफ बढ़ते हैं। छोटा सा कुर्ता और घुटन्ना (छोटा पायजामा) पहने एक छोकरे ने हमें लपक लिया। रेस्त्रां के बाहर तैनात था।
सलाम करके बोला-क्या सही वक्त पर आए हैं, अभी तवे से उतर कर आपके इंतजार में बैठे हैं। लो भई आ गए कदरदान। मज्जन भाई....लगाओ एक पलेट (प्लेट)! अंदर जाना पड़ा, मुच-मुचे गर्म कबाब। चवन्नी में भर प्लेट (चार)... ऊपर से सिरके में तर महीन प्याज के लच्छे। छोटा कप भर गुलाबी कश्मीरी चाय फ्री। लखनऊ में होने का लुत्फ आ गया....। चलते वक्त एक पैसा लौंडे की टिप।
शाम गहरी हो रही थी। हनुमान मंदिर की घंटियों के बीच सड़क से एक आवाज उठती है- खुशबू के खजाने...जो दबाए सो जाने। इन गुलाबों की महक पॉकेट में यार... गंडेरियां धेले (आधा पैसा) की चार। सुर्ख कपड़ा बिछे थाल में तले ऊपर पिरामिड जैसी सजी केवड़े में बसी गन्ने की गंडेरियां... ऊपर तह दर तह छह गुलाब के फूल। बोतलों में बंद गन्ने का ठंडा रस मैंने बैंकॉक (थाईलैंड) में खूब पिया, मगर चूसने वाली गंडेरियोंं की यह नफासत और बांकपन इतिहास के पन्नों में सिमट कर अतीत हो गई। हर सुरमई शाम आवाजों की यह लयकारी सिर्फ अमीनाबाद तक सीमित नहीं थी।
चौक, चारबाग, नक्खास और डालीगंज के बांके फेरीवाले, झल्ली वाले अपने-अपने अंदाज में छोटी-मोटी चीजें बेचा करते थे। एक विदेशी यह आवाज सुनकर ही भाग खड़ा हुआ- 'ठंडा-ठंडा कत्ल हो गया... टुकड़े-टुकड़े कर दिए तरावट के। मालूम हुआ कि एक साहब तरबूज की फांकें बेच रहे हैं।
50 साल बाद वही अमीनाबादी शाम। बकौल वसीम बरेलवी- 'हर शख्स दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ...और यह भी चाहता है उसे रास्ता मिले। नई तहजीब, शोरोगुल... फास्ट-फास्ट जिंदगी से मुझे कोई अदावत नहीं। अपने वक्त की ढपली पर अपना राग गाने का हक सबको है। बस इतनी तमन्ना और गुजारिश है कि इत्र न सही, इत्र का दाग तो बचा रहने दें। थोड़ी-सी तहजीब, थोड़ी नफासत सलामत रहने दें कि हां यह लखनऊ है। अजहर इनायती के शब्दों में यह और बात कि आंधी हमारे बस में नहीं... मगर चिराग जलाना तो अख्तियार में है।