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जाति प्रथा पर चोट करता हरिशंकर परसाई का व्यंग्य: ब्राह्मण से शूद्र तक

Updated Fri, 10 Nov 2017 08:50 PM IST
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Harishankar Parsai
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विस्तार

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'ऐसा भी सोचा जाता है' में संकलित परसाई जी के वैचारिक लेखों में आपको सोचने और विचारने के लिए बहुत कुछ मिल जाएगा। जाति और धर्म के नाम पर खोखले बनाए गए आवरण पर परसाई जी का ये व्यंग्य जोरदार चोट करता है। परसाई जी ने यह व्यंग्य 80 के दशक के आखिर में लिखा था। 

ऋषि जाबालि ने अपने एक नए शिष्य से पूछा - तेरा पिता कौन है ? तू किस जाति का है ? बालक ने माँ से पूछा तो उसने कहा कि मुझे भी पता नहीं है कि तेरा पिता कौन था और किस जाति का था। बालक ने यही गुरु से कह दिया। जाबालि प्रसन्न हुए और कहा - तूने सत्य कह दिया। सत्य केवल ब्राह्मण बोलता है। तू ब्राह्मण है। तेरा नाम होगा - सत्यकाम। सिद्ध यह हुआ कि वे ही झूठ बोलते थे। आगे खींचो तो यह कहा जाएगा की ब्राह्मण सत्य नहीं बोलता। पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में अघोर भैरव बनभट्ट से कहता है - तू ब्राह्मण है न रे! तेरी जाति ही झूठी है। यानी सम्राट हर्ष के समय यह धारणा बन गयी थी।

तुलसीदास बहुत उदार, बहुत संवेदनशील और बहुत ही मानवीय थे। ब्राह्मण पुत्र होने का प्रमाण उनके पास नहीं होने के कारण काशी के ब्रह्मणो द्वारा वे अपमानित व प्रताड़ित हुए । पर वे लिखते हैं...

पूजिय विप्र सील गुण हीना 
शूद्र न पूजिय जदपि प्रवीना

रामराज में एक ब्राह्मण अपने मरे बच्चे को हाथो में लेकर राम के सामने आया और बोला - मर्यादा पुरुषोत्तम, आपके राज में मेरे बेटे की अकाल मृत्यु हो गयी। राम क्षुब्ध हुए। सोचा, कही मर्यादा भंग हुई है। राजपुरोहित ने बताया- महाराज, शूद्र को तपस्या करने का अधिकार नहीं है। पर शमबूक नाम का एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यह धर्म विरुद्ध है, पाप है, मार्यादाहीनता है। इसी कारण इस बालक की मृत्यु हुई है। 

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने जाकर तपस्यारत शम्बूक को मार डाला। तपस्या, प्रभु-प्रार्थना, प्रभु-पूजा करते हुए व्यक्ति को मारना घोर पाप है। पर शम्बूक तो शूद्र था। उसे तपस्या करते मारना पुण्य हुआ। मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए धर्म विधान है कि शूद्र की हत्या करने पर उतना प्रायश्चित पर्याप्त है जितना सूअर को मारने पर।

बेचन शर्मा 'उग्र' की अतीत काल की एक कहानी में आया है कf एक आदमी किसी के घर में घुसकर स्त्री से व्यभिचार कर रहा था। बाहर आसपास के आदमी उसे मारने को खड़े थे। वह बहार निकला तो लोग झपटे। उसने तुरंत अपनी जनेऊ निकालकर दिखा दी। लोगों ने उसे छोड़ दिया - संभवत: उसके चरण छूकर।

सत्यनारायण की कथा सुनने से मंगल होता है, ऐसा विश्वास बनाया गया। सत्यनारायण की कथा अकसर लोग सुनते हैं। इसमें ऐसी कथाएं हैं - किसी बनिये का जहाज डूब रहा था। उसने सत्यनारायण की कथा ब्राह्मण से सुनी। दान दिया। चमत्कार! जहाज ऊपर आ गया। सवाल है - कथा कौन सी थी जिसे बनिये को सुनाया गया। वास्तव में कोई कथा ही नहीं थी। यह जो सत्यनारायण कथा है, वह धंधे के लिए बनाई गई थी। हिंदू-मुसलमान, मेलजोल के नतीजे में बंगाल में 'सत्यवीर' कथा बन गई है।

मनु ने तो वर्ण व्यवस्था को ही धर्म बना दिया। ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण पैदा हुए, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और पांवों से शूद्र। शूद्रों का धर्म, ऊपर के तीनों वर्णो की सेवा करना। वे अछूत। जो काम शूद्र करते है, वही काम दुनिया की दूसरी जातियों में भी कुछ लोग करते हैं, पर वे अछूत नहीं होते। दास भी अछूत नहीं होते थे। प्राचीन ग्रीस में दास मालिक के साथ बैठकर भोजन करते थे। वे पढ़े लिखे होते थे और सम्पन्नों से बच्चों को पढ़ाते थे। वर्ण-व्यवस्था इतनी जड़ हो गई की 'वर्ण संकर' होना सबसे बड़ा लांछन हो गया। वर्ण संकर उसी तरह गाली हो गया जैसे - अंग्रेजी का 'बास्टर्ड'। धर्म का अर्थ अपना निर्धारित कर्म है। 'धर्म' का अर्थ 'रिलिजन' नहीं है। गीता में एक जगह कृष्ण अर्जुन से कहते है, कि ऐसे-वैसे कुकर्म करने से 'वर्ण  संकर' संताने होंगी। इतनी कठोर वर्ण मर्यादा। आज के ब्राह्मण चाहे तो ईसाई हो सकते है पर कायस्थ नहीं हो सकता।

अकेले, ब्राह्मणों की यह देन नहीं है। समाज में उत्पादन के साधनों पर जिनका अधिकार होता है, वे धर्म-संस्कृति पर भी कब्जा कर लेते हैं। पशु-पालन और कबीलाई स्टेज के बाद आर्य कृषि-कर्म करके एक स्थान पर रहने लगे। बस्तियां बसीं। विशाल पैमाने पर खेती शुरू हुई, हस्तोद्योग चलने लगे, व्यापार होने लगा, तब इस तरह के विभाजन की जरूरत महसूस हुई। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों और वैश्यों से समझौता किया। सामन्तवाद का उदय हुआ, ब्राह्मण सामंतो के आश्रित हो गए। तब ब्राह्मण, जो विद्या-दान और धार्मिक अनुष्ठान कराने के कारण पूज्य और विधान देने वाले माने जाने लगे थे, अपने और अपने दाताओं के हितो की सुरक्षा के विषय में सोचने लगे। एक वर्ण को शूद्र बनाना, उसे अछूत बनाना, उसे शिक्षा-संस्कृति से वंचित करना, उसे पशु से भी बदतर स्थिति में जीने को मजबूर करना इसी वर्ग-षड्यंत्र का परिणाम है, जिसे विदेशी 'श्रम विभाजन' (डिवीजन ऑफ लेबर) कहकर व्याख्यायित करते हैं।

अछूतों की जिंदगी कई सदियों तक कितनी कष्टकर रही है, यह सब जानते हैं। नीची जातियों ने विद्रोह न किया हो, ऐसा नहीं है। संत, भक्त और कवि पैदा करना ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं है। नीची जातियों ने मध्य युग में अपने संत और कवि पैदा कर लिए। कबीरदास (जुलाहा), रैदास (चमार), कुंम्भनदास (कुम्हार), नामदेव (दर्जी) फिर महाराष्ट्र में महात्मा फुले और केरल में नारायण गुरु ने हमारे जमाने में संघर्ष किया। महाराष्ट्र में दलित कवि और लेखक थे दया पवार, नारायण सुर्वे, नामदेव धसाल आदि। हर मराठी साहित्य-सम्मेलन में इनसे उच्च वर्ण के लेखकों की टकराहट होती है। दया पवार की आत्मकथा "अछूत" पढ़कर देखिए। रविंद्रकुमार ठाकुर ने लिखा है - मेरे देशवासियों तुमने अपने ही लोगों पर सदियों से इतने अत्याचार किए हैं कि तुम्हें इस पाप का फल भोगना पड़ेगा।

वर्ण व्यवस्था बनाने वाले ब्राह्मणों का क्या हाल हुआ ? उनका काम था चिंतन, मनन, विद्यादान। ज्ञान पर इनका एकाधिकार था। ऋषि के पास रहे बिना ज्ञान-प्राप्ति सम्भव नहीं थी। ज्ञान ऋषि के मुख में या उनके पास रखी हस्तलिखित पोथी में ही होता था। सबसे बड़ा दान विद्या दान माना गया। जिन ऋषियों का उल्लेख पुराणों में आता है, सिर्फ उतने ही नहीं होते थे। उनके तो कुल (विश्वविद्यालय)  होते थे जिनके वे कुलपति होते थे। मगर गांव-गांव में विद्या दान करने वाले ब्राह्मण थे। इन्हें सम्मान पूर्वक समाज पालता था। इन्हें चरण छूकर दान दिया जाता था। ब्राह्मणों में से  पुरोहित पैदा हुए। ये भिक्षा नहीं मांगते थे। ये धार्मिक कर्मकांड कराते थे, पुत्र जन्म, मुंडन, कांछेदन, विवाह, श्राद्ध आदि से इन्हें काफी धन और अनाज मिल जाता था। इन ब्राह्मणों ने धंधे में व्यवसायी वर्ग को भी मात कर दिया।

आगे ज्ञान का एकाधिकार ब्राह्मणों का नहीं रहा। क्षत्रिय जब बस गए, भूमिपति हो गए, तब उन्होंने ज्ञानार्जन और चिंतन किया। ब्राह्मणों से क्षत्रियों के शस्त्र और शास्त्र दोनों से संघर्ष हुए। क्षत्रियों में बड़े बड़े ऋषि और चिंतक हुए। ब्राह्मणों ने कोई उत्पादन नहीं सीखा, न किया। सुदामा पत्नी से कहते हैं - "औरन को धन चाहिए बावरि, बांभन को धन केवल भिच्छा।" पौरोहित्य की सीमा होती है। ब्राह्मण भिक्षा -वृत्ति पर जीवित रहने लगे। पहले सम्मान से गृहस्थ भिक्षा देता था, बाद में कहने लगा - आगे देखो । फिर कहने लगा - अरे भाग, चला आता है कभी भी । जो जाति उत्पादन नहीं करेगी, उसे भीख मांगना ही पड़ेगा।

वर्णो में जातियां, उप-जातियां बनीं। ये ज्यादातर भौगोलिक कारणों से तथा आवागमन की कठिनाइयों के कारण बनी। सरयू बड़ी नदी है। बरसात में उफनती है। पुल नहीं है। तो इस पार के ब्राह्मण आपस में विवाहदी सम्बंध कर लो। उस पार मत करो ये "सरयूपारि" ब्राह्मण हो गए। नर्मदा के किनारे बसने वाले ब्राह्मण "नार्मादीय" या "नारमदेव" हो गए।

इसी तरह क्षत्रियों और वैश्यों में भी सैकड़ों जातियां और उप-जातियां हो गयी। इनमें अपनों में ही खान-पान और विवाह सम्पन्न होने लगे। दहेज-प्रथा का एक कारण एक सीमित छोटी उपजाति में ही लड़की के लिए पति प्राप्त करना भी है। मांग की पूर्ति कर दो तो कीमत बढ़ जाती है ।

तीनों ऊंचे वर्गों ने वे कर्म, जो ब्रह्मा ने मनु के द्वारा उन्हें दिए, उन्हें छोड़ कर दूसरे काम-धंधे अपना लिए। ब्राह्मण भोजन बनाने, पानी पिलाने, झूठी गवाही देने और दलाली करने में लग गए। अकबर - बीरबल विनोद में यह बिल्कुल सही है -

लाओ बीरबल ऐसा नर, पीर बावर्ची भिश्ती खर ...

बीरबल ने एक ब्राह्मण लाकर अकबर के सामने खड़ा कर दिया । पर अब ब्राह्मण ऊंची से ऊंची नौकरियों में हैं। नीची से नीची नौकरियों पर भी हैं। ब्राह्मण व्यवसायी हैं, एजेंट हैं, पुलिस अफसर हैं। और डाकू भी हैं। ब्राह्मण जमींदार रहे हैं और अब बड़े भूमिपति हैं।

पर यह भी सही है की बहुत से ब्राह्मण गरीबी की रेखा के नीचे जीवित रहेते हैं। क्षत्रियों ने एक वर्ण के रूप में युद्ध कर्म छोड़ दिया । वे जमींदार हो गए, व्यापारी हो गए। ऊंची नौकरियों पर हैं, नीची से नीची नौकरियों पर भी हैं ठाकुर साहब। साहब भी ठाकुर हैं और चपरासी भी ठाकुर हैं। ठाकुर डाकू भी हैं, पुलिस अफसर भी है और डकैतों का शिकार भी हैं। मगर बहुत से ठाकुर क्षत्रिय गरीबी की रेखा के नीचे रहते हैं। इन जातियों में गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले बहुत कम प्रतिशत होते हैं। मगर सबसे अधिक बेकारी इन्हीं वर्णो में होती है। शिक्षित, बेरोजगारी के शिकार इन जातियों में काफी प्रतिशत होते हैं, इनमें जो भूमिपति हैं या व्यापारी हैं, उनके लड़के भी अपने धंधों को छोड़ नौकरी चाहते हैं। गाँव से बड़े किसान का लड़का शहर पढ़ने आ गया तो वह लौटकर जमीन पर नहीं जाना चाहता। वह शहर में ही छोटी नौकरी भी कर लेगा। इन वर्णों ने निम्न वर्ण के धंधे भी हथिया लिए हैं। मशीन से धुलाई होने लगी तो ब्राह्मण ने भी लॉन्ड्री खोल ली। और दो नौकर रख लिए। धोबियों का धंधा आधा रह गया। औद्योगिकीकरण और उपभोक्तावाद ने हस्तोध्योग नष्ट कर दिए। यह सही है कि हस्तोध्योग से इतना विपुल उत्पादन नहीं हो सकता जो देश की जरूरत को पूरा कर सके।

नीची जातियां और शूद्र धंधे नहीं बदल सकते। ये परम्परागत धंधे करने को मजबूर हैं। चमार अगर छोटी सी परचून की दुकान खोल ले, तो ऊंची जाति के लोग चमरे की दुकान से वस्तु नहीं खरीदेंगे। इन जातियों में जो कार्यविधि है, वह उनकी पहचान हो गई है। उनके औजार उनकी घटिया जाति की पहचान बन गए हैं। गांव का चमार जो अपने औजारों से हाथ से काम करता है, चमार और अछूत है। पर उसका लड़का तकनीक सीखकर जूते के कारखाने में काम करता है तो वह कारीगर होता है और अछूत नहीं रहता। पर ऐसे मौके बहुत काम लोगों को मिलते हैं। जहां फ्लश पखाने हो गए हैं वहां मेहतर सिर पर मैला नहीं ढोते। वे सफाई जरूर करते है, वे मैला ढोने वालों से कम अछूत हैं। काम करने के औजार और तरीके बदलने से जाति भेद भी काम हो जाता है।

मेरे शहर में रक्षा उत्पादन के पांच कारखाने हैं। इनमे बिना आरक्षण के काफी नीची जातियों के लोग अप्रशिक्षित (अनस्किल्ड) कर्मचारी हैं। कुछ प्रशिक्षित भी हैं। उन्हें अच्छा वेतन मिलता है और ये कुछ बेहतर स्थिति में रहते हैं। औद्योगिकीकरण जाति-भेद पूरी तरह नहीं मिटा सका, फिर भी कुछ फर्क पड़ा है। विडम्बना यह है की साहब चपरासी भी नीची जाति का नहीं रखना चाहता। चौथी श्रेणी की नौकरी भी नीची जातिवालों को नहीं मिलती। साहब ब्राह्मण चपरासी रखना चाहता है, क्योंकि वह घर में अफसरनी की चौके में मदद भी कर सकता है। बच्चों को गोदी में खिला सकता है।

इन नीच जातियों के धंधे भी ऊंची जातियों ने छिन लिए। ब्राह्मण और वैश्य जब जूते बनवाएंगे और बेचेंगे तो चमार का धंधा गया। शास्त्रों, स्मृतियों, पुराणों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नहीं समझने से भूलें होती हैं, गलत निष्कर्ष निकलते हैं। शास्त्र, स्मृति, पुराण औद्योगिक सभ्यता के युग में नहीं लिखे गए। कृषि सभ्यता के युग में लिखे गए थे। उन्हें जैसा का तैसा आज लागू करना सम्पूर्ण जाति के आत्मघात का प्रयास है। कब लिखा ? किसने लिखा ? किसके हित के लिए लिखा ? उत्पादन के साधन क्या थे ? वे किनके हाथो में थे ? इन सब बातों को समझे बिना शास्त्रों और स्मृतियों के उद्धरण देकर समाज के एक हिस्से को उनके मानवीय अधिकारो से वंचित करना अज्ञान तो है ही, कुछ लोगों की स्वार्थपरता है। वास्तविकता बदलती रहती है। बदलती वास्तविकता के साथ नये विचार और नयी व्यवस्था आनी चाहिए। यदि यह नहीं होता तो समाज में संकट पैदा होता है, जैसा इस समय है। यह पुराना रोग है। पर कुछ रोग रोगी को प्रिय हो जाते है, जैसे दाद का रोग। दाद खुजलाने में मजा आता है। जातियों को भी दाद हो जाती है, जिसका वे इलाज न करके उसे खुजलाने का मजा लेने लगती हैं।

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