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अपनी कलम से जीवंत चित्रण की कला में व्यंग्यकार के पी सक्सेना को महारत हासिल थी। लखनऊ को उन्होंने बारीकी से देखा था और अक्सर उसी पर लिखा करते थे। अक्टूबर 2013 के एक लेख में सक्सेना जी ने लखनऊ की कुछ प्रतिभाओं को अपने अंदाज मे पेश किया था। जरूर पढ़ें
कोई ढाई-तीन सौ साल पहले के नवाबी दौर की नहीं कह रहा हूं जब बहुत ऊंची-ऊंची छोड़ी जाती थी। मसलन यही कि अवध के पहले बादशाह गाजीउद्ïदीन हैदर का बावर्ची 5 सेर घी में एक पराठा पकाता था। रोज 6 पराठों के तईं 30 सेर घी लेता था। नवाब आसिफ उद् दौला का एक बावर्ची 500 रुपये महीना पर सिर्फ उड़द की दाल पकाता था। शर्त यह थी कि पकते ही दाल फौरन खा ली जाए। एक दिन नवाब को घंटा भर देर हो गई। अगले दिन झल्लाकर सारी दाल एक सूखे ठूंठ पेड़ की जड़ पर फेंक दी। दो दिन में ठूंठ लहलहाता हुआ दरख्त हो गया। ये सब सुनी-सुनाई, पढ़ी-पढ़ाई है। मैं आपको पिछले 60-70 वर्षों में हुए कुछ ऐसे अजूबे लोगों के बारे में बता रहा हूं जो इसी शहर में मेरे देखते-देखते लोगों को हैरत से चकित कर गए। अब नहीं रहे, मगर पुराने लोगों को उनका अजूबापन आज भी याद है।
सन् 60 के करीब जब मैंने रेडियो के लिए नाटक लेखन शुरू किया, एक थे बंगाली दादा गोरा सेन, संगीत विभाग में कार्यरत थे, वायलिन और पियानो बहुत अच्छा बजाते थे। मेरे कई नाटकों में पाश्र्व संगीत दिया। बारह महीने मलमल का कुर्ता, धोती, चप्पल। जनवरी में सब 6-6 कपड़े, टोपा, मफलर में कुड़कुड़ा रहे होते, गोरा सेन वही मलमल। एक वर्ष लखनऊ का तापमान गिर कर 2.5 डिग्री पहुंच गया। दादा वही पोशाक और चप्पल में, शहर के वैज्ञानिक और डॉक्टर उन्हें देखकर ताज्जुब करते थे। गोरा दा ने एक बार मुझे बताया कि यह योग साधना है, उन्हें न सर्दी लगती है न ही गर्मी। जनवरी में गर्दन पर पसीना आता है।
एक थे बाबू हरशरण निगम, चारबाग के आगे मवईया मेंं रहते थे। दीवानी कचहरी में पेशकार, अच्छे खाते-पीते थे, उनमें एक फन था नाक से सुरीली शहनाई बजाने का। एक तरफ नाक अंगुली से दबाकर दूसरे नथने से शहनाई। सारा उतार-चढ़ाव लय शहनाई में। एक आदमी ढोलक पर संगत करता था। बड़ी-बड़ी महफिलों और संगीत कार्यक्रमों में बुलाए जाते थे। खा-पी लेते, गिफ्ट ले लेते, पर पैसा नहीं लेते थे। उनका कहना था कि बचपन मेंं जुकाम के कारण नाक पें-पें करती थी, वहीं से शहनाई शुरू हो गई। मैंने उन्हें पहली बार देखा तो बूढ़े हो चुके थे। बीस साल तक नाक से शहनाई बजाकर शहर में नाम कमाया।
श्रीमती संध्या देवी भी अपने आप में अजूबा थीं। 65 के लगभग थीं जब मैंने उन्हें एक कला प्रदर्शनी में देखा। दोनों हाथ बचपन से फालिज के मारे हुए। हिल-डुल सकते थे न उठ सकते। उनका एकमात्र सहारा उनकी बेटी थी। नहलाना, कपड़े पहनाना, खाना खिलाना सब बेटी करती थी। संध्याजी ने वर्षों पहले अपने पैरों का इस्तेमाल किया, पैर के अंगूठे के बीच ब्रश दबाकर पेंटिंग बनाने में माहिर हो गईं। प्रकृति का चित्रण, बारिश, आंधी, तूफान, पेड़, पेंटिंग के कोने से पदाक्षर (हस्ताक्षर तो कह नहीं सकते)। उनकी कृतियां अच्छे दामोंं मेंं बिकने लगीं। उनके बारे में जानकारी परम प्रसिद्ध कलाकार मदनलाल नागरजी ने मुझे दी। संध्याजी के दर्शन न कर सका मैं, सिर्फ उनकी तस्वीर देखी (पैर से पेंटिंग बनाते हुए)। बहुत छोटी उम्र मेंं एक नुमाइश मेंं इतालवी कलाकार मिस मेरी को पैर से लिखते और पशु-पक्षी बनाते देख चुका था मैं।
क्या आपने कभी एक ही व्यक्ति को लता और मुकेश दोनोंं की आवाज मेंं गाते सुना है? मेरी ही उम्र के रहे होंगे, नाम था ओमी अग्रवाल (अब जाने कहां हैं) गले पर इतना कंट्रोल था कि लता की आवाज मेंं गाते तो वैसा ही मीठा और सुरीला... मुकेश की आवाज में तो वही तरन्नुम, बड़े-बड़े आयोजनोंं और सम्मेलनों में गाने के लिए बुलाए जाते थे। ऑर्केस्ट्रा के नाम पर उनके साथ ढोलक, हारमोनियम और बांसुरी, उनका प्रिय दो गाना था- बड़े अरमानों से रखा है बलम तेरी कसम... प्यार की दुनिया मेंं यह पहला कदम (लता), जुदा न कर सकेंगे हमको जमाने के सितम... प्यार की दुनिया मेंं.... (मुकेश) ओमी भाई का जिक्र हो तो टुंटे महाराज की ढोलक याद आ जाती है। नाम कोई नहींं जानता था। सब टुंटे महाराज कहते थे। दाहिना हाथ कोहनी के नीचे गायब, सिर्फ ठूंठ था। घुटने के नीचे ढोलक दबाकर बाएं हाथ से बजाते थे। ठूंठ से सिर्फ थाप देते थे। भजन-कीर्तन और संगीत आयोजनों में घंटों बजाते थे। लोगों का कहना था कि पूरे यूपी में उनके जैसा ढोलक बजाने वाला कोई नहींं था। मैंने उन्हें कितनी ही बार सुना और सराहा, कहते थे - भैय्याजी भगवान ने एक हाथ छीन लिया, दूसरे में दोगुनी ताकत दे दी।
गोरे चिट्टा, हृष्ट-पुष्ट, बॉडी बिल्डर, नौजवान, लाल कुर्ता लाल तहमद, माथे पर तिलक, पुराने स्कूटर पर आना-जाना, नागरजी उन्हें आयरनमैन कहते थे। कीलें, पुराने ब्लेड, कांच के टुकड़े सामने रख दो, सब खा जाएंगे। बिजली की टयूब लाइट को खीरे की तरह कचर-कचर खा जाते थे। मैंने कई बार उन्हें पूछा कि इस खतरनाक खेल का राज क्या है? हर बार एक ही जवाब, सब शंभु भोले नाथ की कृपा है, आजकल पता नहीं कहां हैं।
जाने-माने अभिनेता स्व. संजीव कुमार को 'नया दिन, नई रात में नौ रोल करते लोगों ने देखा। फिल्म में यह संभव है। अलग-अलग शॉट लेकर जोड़ देना, मगर मंच पर? मेरे छात्र जीवन में रिफाह-ए-आम के मंच पर कलाकार तजम्मुल जैदी ने एक नाटक में स्त्री-पुरुष मिलाकर सात रोल अकेले निभाए, कितनी जल्दी पोशाक और आवाज बदलते थे, उन्हीं का कमाल था। जुबली कॉलेज के पीछे रहते थे। इस शहर के नाट्यकर्मियों ने तो तजम्मुल चच्चा का नाम भी न सुना होगा। जितने माहिर कॉमेडी में, उतने ही गंभीर रोल में। साथी उन्हें 'तज्जू भाई कहते थे प्यार से। उन्हीं दिनों लालबाग चर्च के फादर अब्राहम के छोटे भाई एडगर, जो क्रिश्चियन कॉलेज में थे, आंख पर पट्टी बांधकर हाथ हवा में उठाकर भरे बाजार साइकिल चलाते थे। गवर्नर ने उन्हें चांदी का मेडल दिया था। ओमी अग्रवाल और आयरन मैन के बारे में कह नहीं सकता... बाकी सब यादों की दीवार पर अपने हस्ताक्षर करके लखनऊ का नाम रोशन करते हुए चले गए, पुराने लोग आज भी (मेरी उम्र के करीब) इन अजूबों के गवाह हैं। शेर याद आता है -
कैसे-कैसे, ऐसे-वैसे हो गए, ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए।