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दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए एक खुशखबरी आई है। आपने सुना होगा कि कुछ समय पहले ही तीन बड़े पब्लिशिंग हाउस ने नॉर्थ कैंपस की एक दुकान पर कॉपीराइट का मुकदमा ठोक दिया था।
बात असल में ये है कि डीयू के छात्र पढ़ने के लिए किताबों की फ़ोटो कॉपी करवाते हैं। ये बात कुछ पुब्लिशर्स को नागवार गुज़री। उनका कहना था कि ये कॉपीराइट कानून का उल्लंघन है। इसके बाद से ही बच्चों में ये डर फैल गया था कि अब वो किताबों की फोटोकॉपी नहीं करा पाएंगे। सारे छात्र दुविधा में थे कि अब उनके लिए पढ़ाई करना कितना मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन पिछले साल दिसंबर की 16 तारिख को कोर्ट ने छात्रों के पक्ष में फैसला सुनाया। जस्टिस प्रदीप नंदराजोग ने अपने फैसले में कॉपीराइट एक्ट के सेक्शन 52 का हवाला देते हुए कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में कॉपीराइट कानून लागू नहीं किया जा सकता।
इसके बाद डीयू की लाइब्रेरी और विश्वविद्यालय से अधिकृत फोटोकॉपी की दुकान से छात्र बेझिझक किताबों की फोटोकॉपी ले सकेंगे। कोर्ट ने ये भी कहा कि अगर लाइब्रेरी में फोटोकॉपी की सुविधा नहीं होगी तो छात्रों को नोट्स बनाने में कॉलेज में ही लंबा समय गुजारना पड़ेगा जिसकी जगह वो अपने घर में बैठ कर आराम से पढ़ाई कर सकते हैं।
सबसे अच्छी बात ये हुई कि ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस और टेलर एंड फ्रांसिस ने कहा कि वो आगे इस बात के खिलाफ़ कोर्ट में नहीं जाएंगे और अपना केस भी वापस ले लेंगे। और उन्होंने ऐसा किया भी।
इससे न सिर्फ़ छात्रों को बड़ी राहत मिली है बल्कि फोटोकॉपी करने वाले भी काफ़ी खुश हैं। एक फोटोकॉपी की दुकान के मालिक धरमपाल ने कहा कि वो इस फैसले से बहुत खुश हैं साथ ही मीडिया का भी शुक्रिया अदा करना चाहते हैं कि उसने इस मुद्दे को इतने अच्छे तरीके से सबके सामने रखा।
उन्होंने कहा कि मैं इस फैसले से बेहद खुश हूं। पिछले 6 महीने मेरे लिए बहुत बुरे रहे। मैं दिमागी रूप से भी परेशान था और मेरी कमाई पर भी काफ़ी बुरा असर पड़ा था। मुझे इन बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों से डर भी लग रहा था।
पब्लिशर्स ने भी एक जॉइंट स्टेटमेंट में कहा कि हम इस बात को समझते हैं कि एजुकेशन मैटीरियल तक हर एक छात्र की पहुंच होनी ज़रूरी है। इसलिए हम इस फैसले का समर्थन करते हैं साथ ही हम अपने कॉपीराइट नीतियों पर भी खड़े हुए हैं।
ये फैसला छात्रों के हित में हैं क्योंकि डीयू में हज़ारों स्टूडेंट्स पढ़ते हैं और लाइब्रेरी में इतनी किताबें नहीं हैं कि वो हर एक छात्र के हाथ में पहुंच सकें। ऐसे में पब्लिशर द्वारा उठाया गया ये कदम छात्रों के खिलाफ़ था। ये बात देर से ही सही लेकिन कहीं न कहीं इन कंपनियों को समझ में आ गईं और शायद यही कारण है कि अंत में उन्होंने अपना फैसला बदल दिया।