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फिल्मों की बड़ी लम्बी लिस्ट है जिन पर एक दो बार नहीं कई बार सेंसर बोर्ड की कैंची चल चुकी है। सेंसर बोर्ड या केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के पास अधिकार होता है कि वह फिल्मों, टीवी धारावाहिकों, विज्ञापनो को श्रेणीयों में बांट कर उन्हें सर्टिफिकेट दे सके। सर्टिफिकेट ही डिसाइड करता है कि फिल्म किस स्तर की है। पिछले कुछ सालों से कई फिल्में विवादों में घिरी रहीं, जिसकी वजह है 'सेंसर बोर्ड की कैंची'..
भारत में हर साल छोटी-बड़ी हज़ारों फिल्में बनती हैं। बहुत से निर्माता अपनी सारी मेहनत, ऊर्जा और पैसा एक फिल्म बनाने में लगा देते हैं, लेकिन उनकी यह फिल्म दर्शकों तक थिएटर या टीवी के ज़रिए सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलने के बाद ही पहुंच पाती है। आखिर ये कौन डिसाइड करता है कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं?
सेंसर बोर्ड का कहना था कि 'लिपस्टिक अंडर माइ बुर्का' में गालियां और फ़ोन सेक्स हैं और साथ ही एक ख़ास समुदाय की संवेदनशीलता के ख़िलाफ़ है। एक तरह से देखा जाए तो इन फिल्मों में वहीं चीजें दिखाई जाती हैं, जिसके बारे में लोग पहले से ही जानते हैं।
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो एक तीखी सच्चाई बयां करती हैं वो सच्चाई जिसे समाज गटर में डाल चुका है। इस तरह की फिल्मों पर भी सेंसर बोर्ड अपनी कैंची चलाने से नहीं चुका है। तो क्या सेंसर बोर्ड सच्चाई पर परदा डालना चाहता है?
क्या सेंसर बोर्ड फिल्मों को पुरुषों के नज़रिए से देखता है? या महिलाओं की आजादी से डर बैठा है? सेंसर बोर्ड को हिंसा, खून खराबा और बाकी दूसरी बुराइयों से आपत्ति बेशक होनी चाहिए, लेकिन सेंसर बोर्ड महिलाओं को आंड़े में रखना चाहता है तो इस चीज से बहुत लोगों को आपत्ति हो सकती है। बॉलीवुड में ही बहुत सी ऐसी फिल्में हैं जिनको 'एडल्ट फिल्म' कहने में कोई बड़ी बात नहीं है, जब उस तरह की फिल्मों को अच्छा सर्टिफिकेट देकर पास कर दिया तो हकीकत बयां करने वाली फिल्मों से परेशानी कैसी?
कुछ फिल्मों में गाने ऐसे हैं जिनसे डबल मीनिंग निकलते हैं उन गानों से बोर्ड को कोई आपत्ति नहीं है। फिर फिल्मों से क्यो? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या एक संस्था की वजह से हेर-फेर करके फिल्मों में से कई सीन्स को हटाना ठीक है? जब दर्शक इसे देखकर आसानी से पचा लेते हैं तो सेंसर बोर्ड अपनी कैंची क्यों लगा देता है।
पहलाज निहलानी जो हाल फिलहाल सेंसर बोर्ड के चीफ हैं। उनके द्वारा प्रोड्यूस की गई फिल्म 'अंदाज' थी। जिसमें अनिल कपूर, जूही चावला और करिश्मा कपूर थीं। उस फिल्म के गानें डबल मीनिंग वाले थे। गाने के बोल थे 'मैं माल गाड़ी तू धक्का लगा रे'। इस गानें को सुनने के बाद ये सुनना अजीब लगेगा कि संस्कारी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष साहब ही इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे। ये गाना गले से नहीं उतरेगा। सिनेमा अब आगे बढ़ गया है लेकिन सेसंर बोर्ड और पीछे खिसक गया है। वह यह नहीं समझ पा रहे है कि अब फिल्म पर मनोरंजन करने से कहीं ज्यादा जिम्मेदारी है।
खुद पहलाज सर की कई ऐसी फिल्में हैं जिन पर कैंची ही नहीं बल्कि पूरी फिल्म ही काट देनी चाहिए थी। पहलाज निहलानी की ऐसी कई फिल्में हैं जिनके सीन्स देखकर, किसी के भी दिमाग में सवाल आ सकता है कि इन फिल्मों पर सेंसर की कैंची क्यों नहीं चली। इतना ही नहीं इन फिल्मों में एडल्ट सीन्स और डबल मीनिंग डायलॉग्स का इस्तेमाल किया गया।
फिलहाल सेंसर बोर्ड ने अब बॉलीवुडड में क्रांति लाने को सोच ही लिया है तो 'सेंसर बोर्ड' का नाम बदलकर 'संस्कारी सेंसर बोर्ड' जरूर रख देना चाहिए...