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मैं एक दिन ऑफिस से घर लौट रही थी। करीब आठ बज रहे होंगे। मेट्रो से काफी दूर होने के कारण एक लम्बा रास्ता ऑटो से तय करना पड़ता है। ऑटो की आदत कम ही रही है, अक्सर कैब प्रेफर करती हूं पर कैब बुक करना और फिर वेट करना रोज़-रोज़ नहीं हो पाता इसलिए ऑटो भी ठीक ही रहता है।
उस दिन मैं रास्ते में खड़ी ऑटो का इंतज़ार कर रही थी। एक ऑटो आया पर वो शेयर्ड था। शेयर्ड समझते हैं न आप? ऐसा वाहन जिसमें कई लोग एक साथ किराया देकर जा रहे हों। ऐसे 10-15 रुपये में सबका काम हो जाता है। मैंने सोचा कि वेट करती रही तो लेट हो जाऊंगी, इसलिए उसी में बैठ गई। बैठने के बाद मैंने उसका क्राउड देखा। क्राउड मतलब उसमें बैठी सवारी। मैं ये नहीं भी देखती पर किसी ने अपने सुर और साज़ दुरुस्त करते हुए गाना शुरू कर दिया और गाने की आवाज़ थोड़ी तेज़ हो गई इसलिए सब पर नज़र पड़ी। वो महाशय अरिजीत सिंह का कोई गाना गा रहे थे। कौन-सा गाना था, याद नहीं।
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I think that guy is following me...[/caption]
एक समय मेरा परिवार किराए के मकान में रह रहा था, मकान मालकिन घर से बाहर गई थीं। उनकी बेटी घर आई तो उनकी तरफ से घर की एंट्री बंद थी। हमारे एक कमरे का रास्ता भी हॉल की ओर खुलता था इसलिए मम्मी ने उन्हें अंदर से जाने को कह दिया। उस वक्त वो दीदी एमबीए पासआउट थीं और मैं नौवीं क्लास में। हमारे घर में एक भैया हम से मिलने आए हुए थे। मेरे थोड़े दूर के कज़िन थे। वो अपने घर में निहायत ही शरीफ़ माने जाते हैं। भैया उस वक्त उसी कमरे में बैठे थे, मैं और मम्मी भी वहीं थे। दीदी वहां से गुज़री तो भैया ने हल्का-सा गाना गुनगुनाना शुरू किया। दीदी चुपचाप चली गईं, मम्मी ने ये ध्यान नहीं दिया और मैंने दुनिया भर की बातें भुलाकर इसी बात पर ध्यान दिया क्योंकि अब मैं नौवीं क्लास में थी। वो समय शुरू हो चुका था जब कल तक मुझे गुड़िया कहने वाले और बच्ची समझने वाले लोग मेरे चेहरे को घूरते हुए चेहरे के नीचे कुछ ढूंढने की कोशिश करते और उसे देखकर बद्तमीज़ी से मुस्कुरा देते थे। अब वो दौर आ चुका था जब लोग मुझमें प्रेम के सहारे वासना ढूंढते थे। उस दिन से मैंने कभी भी उन्हें अच्छा नहीं समझा। मेरा पूरा खानदान उन्हें जैसा भी समझे पर मैं उनकी इज़्ज़त नहीं कर पायी।
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Boys looking at girl[/caption]
मैंने ग्रेजुएशन शुरू ही किया था। उस वक्त दिल्ली के करोल बाग में रहती थी। जब मैं कॉलेज से आती थी तो किसी सरकारी स्कूल की भी उसी वक्त छुट्टी होती थी। कई स्कूली बच्चे मिल जाते थे जो ऐसे ही बगल से गाने गाते हुए या कुछ कहते हुए गुज़रते थे। मन होता था कि उन्हें रोककर बता दूं कि मैं उनसे बड़ी हूं।
वहां पर एक रिचार्ज की दुकान थी। दुर्भाग्य ये कि उसके आस-पास कोई दूसरी दुकान नहीं थी। उस वक्त तक रिचार्ज ऐप नहीं आए थे सो फोन रिचार्ज करवाने वहीं जाना होता था। वहां एक भैया थे, यही तो कहती हैं हम लड़कियां लगभग हर लड़के को, फिर चाहें वो दुकानदार हो या रिक्शेवाला। वो भैया मेरे पहुंचते ही अचानक बहुत एक्टिव हो जाते। दुकान पर चाहें जितने भी कर्मचारी हों पर मेरा रिचार्ज वही करते थे। कई बार बिना कराए ही मेरा रिचार्ज हो जाता था, फिर मैं जाकर उन्हें ज़बरदस्ती पैसे देती, हालांकि उन्होंने कभी ये माना नहीं कि ये काम उनके यहां से होता है।
गाना सुनते ही अब मुझे प्यार नहीं आता, रोमांस महसूस नहीं होता, मेरे दिल के तार बजने नहीं लगते.. दिमाग का दही हो जाता है और गानों से मन इतना खिन्न हो गया है कि अब समझ ही नहीं आता कि कौन अपनी खुशी के लिए गा रहा है और कौन अपना स्तर दिखाने के लिए। कई बार मैं गाते हुए लोगों को गलत समझ लेती हूं और बाद में एहसास होता है कि वो इंसान सही था। बताइए, कहां से हमलोग इतनी बुद्धि लाएं कि सभी का दिमाग स्कैन कर के देख सकें कि उसमें क्या चल रहा है? लगभग हर घटना पर मेरा मन किया कि उठकर 3-4 थप्पड़ रसीद कर दूं और कई बार मैंने पलट कर टोका भी, पर हर बार ऐसा नहीं हो पाया। इन सभी घटनाओं में ऐसा बिल्कुल नहीं हो सका।
ऑटो में बैठे उस लड़के की क्लास लेने का पूरा मन था पर वो अपनी क्लास का लगा नहीं। हमारी समस्या यह भी तो है। मम्मी से मिली हुई नसीहतें हमें सिखाती हैं कि हर किसी को मुंह नहीं लगाते। उसे जूता लगाने का मन था पर जबतक मैं सोच रही थी कि जूता लगाऊं या नहीं, वो उतर चुका था। दूसरे किस्से में दीदी चुपचाप चली गईं क्योंकि आंटी ने उन्हें सिखाया होगा कि ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते। समाज में रहना है तो गूंगी-बहरी बनकर रहो, इसी में इज़्ज़त है। बचपन से हमें यही घुट्टी तो पिलायी जाती है, और सभी लड़कियां मेरी तरह बगावती भी नहीं होती न। कुछ बहुत 'अच्छी' भी होती हैं जो फूंक-फूंककर कदम रखती हैं। जिनकी बदौलत ये समाज चलता है।
मुझे मम्मी पर गुस्सा इसलिए आया कि उन्होंने इस बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया? बड़े लोग ऐसी चीज़ें अक्सर ही क्यों नहीं देख पाते हैं? और भैया पर तो गुस्सा आया ही नहीं, मैंने मम्मी से सीधे बोल दिया कि - आज के बाद ये भैया मेरे घर पर नहीं आएंगे, बात माननी है तो मान लें नहीं माननी है तो भी माननी पड़ेगी, नहीं तो मैं अगली बार ये बात खुद भैया को बोल दूंगी। मुझे उस दिन एक झटका-सा लगा था। नौंवी क्लास में पढ़ने वाली लड़की यही सोचती थी कि ये बद्तमीज़ लड़के आते कहां से हैं? ये किसी से भी ऐसे कैसे कुछ भी बोल देते हैं.. उस दिन धुंधलापन हटा और आसमान साफ हो गया।
जब ग्रेजुएशन कर रही थी तो लगा कि लड़के कम से कम इस बात का तो ख्याल रखते होंगे कि बड़ों की इज़्ज़त करनी है। मैं अगर बता दूं कि बड़ी हूं तो शायद ऐसा न करें, पर उस उम्र के उन लड़कों को कुछ भी समझाना मुश्किल था। रिचार्ज शॉप वाले भैया ऐसे थे कि उनसे कुछ कहते ही नहीं बनता था। मैं पीजी से ये सोचकर निकलती थी कि आज अगर कुछ हुआ तो झाड़ दूंगी पर वो अपने हिस्से की बद्तमीज़ी भी इतनी सफाई से करते थे कि मैं सबकुछ समझते हुए भी उंगली नहीं उठा पाती थी।
आए दिन हम गाने सुनते हैं, यकीन मानिए.. नहीं सुनना चाहते। गानों से विश्वास उठ गया है, फिर भी सुनते हैं। हमें गूंगी-बहरी बने रहने को कहा गया है फिर भी गानों के बोल हमारे कानों में पड़ ही जाते हैं। उसके बाद हम आपका सुर-ताल नहीं महसूस करते। आप अच्छा गाते हैं, बुरा गाते हैं.. इसपर भी हमारा ध्यान नहीं होता। गानों के बोल पर भी बहुत ध्यान नहीं होता क्योंकि जैसे ही आपको गानों के बोल हमारे कानों में पड़ते हैं, मम्मी की नसीहत दिमाग की घंटी बजाकर याद दिलाने लगती है कि बहरी बनी रहना है। हम चाहते हैं कि आप गली-सड़क-चौराहों पर गाने गाना बंद कर दें। किसी लड़की को उसके लड़कीपन का एहसास दिलाना बंद कर दें। हमारी कमज़ोरी को अपनी मज़बूती बनाना बंद कर दें। इससे अधिक विनम्र शब्दों में शायद यह बात नहीं कही जा सकती।
हम प्लास्टिक की गुड़ियाएं नहीं हैं, नौटंकी की कठपुतलियां नहीं हैं.. पर हम ऐसी बनी रहती हैं और इसीलिए आप आज तक गाते आ रहे हैं। जिस दिन इन प्लास्टिक की गुड़ियाओं ने घर से भरी हुई चाबी निकाल कर फेंक दी उस दिन ये गाने हर हाल में बंद हो जाएंगे।