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सावन के महीने का जिक्र आते ही चेहरे पर ठंडी फुहारे और दिल में झूले हिलोरे मारने लगते हैं। एक जमाना था जब सावन का महीना किसी उत्सव की तरह मनाया जाता था। सुहावने मौसम में कोयले की आंच पर भुने हुए भुट्टों का लुत्फ लेते हुए पेड़ों की डालियों पर झूला झूलना, सावन के आंनद को चार गुना बढ़ा देता था। कुछ एक ग्रामीण परिवेशों को छोड़ दें तो सावन का वो माहौल अब लगभग विलुप्त हो चुका है। आइए जानते हैं कि तेज भागते हुए हमसे क्या पीछे छूट गया।
सावन और झूलों का वही संबंध है जो परिवार में बड़ों और छोटों के बीच में होता है। बड़ों की शोहबत में आते ही छोटों को शरारत सूझ जाती है। दिल और दिमाग में शरारतें हिलोरे मारने लगती हैं मानों कह रहीं हो की शैतानी करना हमारा धर्म है।झूलों को लेकर दिमाग में ऐसी छवि बनी हुई है कि सावन के अलावा किसी भी महीने में झूलों पर बैठने का दिल नहीं लगता है।
वक्त के साथ काफी कुछ बदल गया है।अब बारिश की फुहारों के बीच झूले, सिर्फ फिल्मी गानों और एल्बमों तक ही सीमित रह गए हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में बने घरों में तो झूलों के लिए बकायदा जगह दी जाती थी। बड़े शहरों के फ्लैट कल्चर ने झूलों और झूलों के लिए बनाए जाने वाले खूंटों को लोगों की जिंदगी से बाहर कर दिया।
एक वक्त था जब बॉलीवुड की फिल्में सावन के मौसम के बिना... अधूरी हुआ करती थी। फिल्मों में हीरो-हिरोईन्स का असल रोमांस सावन की फुहारों के बीच ही परवान चढ़ता था। वक्त बदला तो फिल्मों के रोमांस ने भी अपनी जगह बदल ली। अब की फिल्मों का रोमांस किसी मौसम या वक्त का मोहताज नहीं है, ये तो कहीं भी शुरू हो जाता है।
हिंदुस्तान में आजादी के बाद उन्नीसवीं सदी के आठवें और नौंवे दशक तक पैदा हुए लोगों ने मेले में जमकर मौज काटी है। सावन के मेले में तो झूले झूलने की अपनी कहानियां हुआ करती हैं। कई प्रेम कहानियां सावन के मेलों में ही जन्म लिया करती थी। अब कुछ एक इलाकों को छोड़ दें तो मेले विलुप्त हो चुके हैं। जहां ये बचे भी हैं तो इनकी आत्मा गायब है, अब सिर्फ एक आयोजन की तरह मेले होते हैं।
इंसानों ने सावन के साथ बेरुखी दिखाई तो मौसम भी रूठ गया। आज का सावन पहला जैसा नहीं रहा, ग्लोबल वार्मिंग वाले बाबा ने इनका मिजाज भी बदल दिया। अब तो बारिश होने के कुछ देर बाद धूप और चिलचिलाती धूप के कुछ देर बाद बारिश हो जाती है। मैदानी इलाकों में उमस कहर बनकर टूटती है। मौसम की इस बेइमानी से लोगों के दिलों में सावन के लिए जो बची कुची जगह थी, वो भी धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।