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आज मनीप्लांट की डाल गमले में बोयी है। बहुत दिनों से कह रही थी बीवी की ड्राइंगरू में मनीप्लांट लगाना है। आज लग गया। वह खुश है। हम अपने अगले कमरे को ड्राइंगरूम कहते हैं। एक तखत बिछा है, एक दो चौकियां पड़ी हैं और मेज पर किताबों और पत्रिकाओं का ढेर। दीवारें सब गंदी हैं। मोहल्ले के बच्चों ने तस्वीरें बना रखी हैं। कभी कभी जोश आता है तो इस कमरे को सजाने संवारने की सोचते हैं। तीन चार दिन तक मूड़ रहता है।
सब किताबें ठीक से रख दी जाती हैं, पर धीरे धीरे फिर वही सब हो जाता है। मध्यम वर्ग के आदमी की सारी जिंदगी अपने तीन कमरों की समस्या सुलझाने में गुजर जाती है। ड्राइंगरूम के लिए कुर्सियां खरीदेगा तो रसोई के लिए कोयला, आटा कम पड़ जाएगा। वह न हुआ तो चादरें फट जाएंगी। चादरें खरीद कर लाया तो बिजली का बिल चुकाना रह गया, समझो। हंसी आती है और क्रोध भी। इसलिए अब घर को ड्राइंगरूम, किचन और बेडरूम में बांटने का विचार छोड़ पूरे घर को घर पुकारने लगा हूं। यही मुझ जैसे व्यक्ति करते हैं। वे सब जो तुलसी का पौधा बोते हैं। वे सब जो सड़क से गुजरता जुलूस उत्साह से देखते हैं पर घर आया अतिथि टालते हैं, मैं उन सब में से ही एक हूं। मनीप्लांट की डाल बोना मेरी हिमाकत है। यह पौधा मेरे यहां पनप जाएगा या नहीं इसमें मुझे संदेह है। पैसे का पौधा हमारे घर क्यों पनपने लगा?
पर अब पौधा लग ही गया है तो इसे बराबर पानी देना होगा। मैंने सजाकर रख दिया है, इसके पत्ते बड़े चिकने हैं। मुझे कुछ दया आ गई। क्या लेता है आखिर? पानी ही तो पीता है मात्र। हम खूब पानी देंगे। इस मामले में तो किसी भी बंगले वाले से होड़ ले सकता हूं। अगर इस पौधे को बजाय पानी के दूध देना पड़ता तो मैं हार जाता। इसकी वही दुर्दशा होती जो बंगले वाले बच्चों की तुलना में एक मध्यमवर्गीय बच्चे की होती है। पर पानी पीकर तो मैं पनप गया हूं, यह भी पनपेगा।
मित्र आते हैं तो मेरे मनीप्लांट को गौर से देखते हैं। कोई तारीफ भी कर बैठता है। यानि रौब पड़ता है। 'मनी' शब्द की ही महिमा है। पौधे के आगे ही 'मनी' लगा होता है तो सब रौब खाते हैं। मेरे पास मनी ऑर्डर आएं तो मेरे ठाठ बढ़ें। सिर्फ मनी प्लांट लगाने से कुछ ठाठ तो बढ़ते ही हैं। मैं हंस देता हूं। पत्ते फूट रहे हैं, कोमल छोटे पत्ते। फूल नहीं होता, सुगंध नाम को भी नहीं है। पैसे की भी यही प्रकृति है। सोचता हूं, इस पौधे का बीज भी होता है या नहीं। लोग पौधे की डाल काटकर ले जाते हैं और दूसरी जगह बो देते हैं। वहीं पनप जाता है। जैसे बैंक की शाखाएं, खुले या किसी कंपनी ने नयी कंपनी डाली हो। नए सिरे से श्रम नहीं करना पड़ता।
अर्थशास्त्र और पौधा शास्त्र के नियमों में इस मामले में एक ही नियम लगता है। सेठ साहब ने एक धंधा अपनाया। रुपया पत्तों की तरह फूट आया। कई डालियां हैं जिन पर पैसा लगता है और वे सब उनके कब्जे में हैं। सिर्फ एक डाल है उनके अपने श्रम की, उनकी पूंजी और सूझ की। मनीप्लांट में नयी कोपलें और डालें फूटती हैं। ब्लैक मनी इनकम टैक्स नहीं चुकाया बोनस दाब गए वेतन कम दिया, गलत खाते भरे नकली खर्चा दिखाया, घाटा शो कर दिया ओवर इनवाइस अंडर इनवाइस पूंजी बांट ली, नकली शेयर होल्डर रावण के सिर की तरह बढ़ाए गए। यह सब एक ही मनी प्लांट की डालें हैं। पत्ते फूटते हैं और मालिक की शोभा और शान बढ़ती है। अर्थशास्त्र के नियम का प्रकृति से कैसा संबंध है। हमारी मिट्टी को कटी हुई डालियां भी स्वीकार हैं। जहां कारखाना डलता है राजस्थान से खान देश तक का पसीना उसे सींचने, पनपाने आता है। नये पत्ते फूटते हैं, नई डालियां फूटती हैं। एक और कारखाने की भूमिका बनती है। इसी कारण तो अर्थशास्त्री कहते हैं कि हमारी मिट्टी में समाजवाद नहीं पनप सकता है। समझदार लोग हैं वे सब। समाजवाद कैक्टस की तरह खड़ा हुआ है। पानी नहीं, सहारा नहीं, फिर भी खड़ा है। आपकी लापरवाही से उसका कुछ बनता बिगड़ता नहीं है, वह हवा से नमी सोख लेता है।
पर मनीप्लांट तो शुद्ध प्राइवेट सेक्टर है। उसका अपना मामला है, पानी पर उसका अधिकार है। जनता को इससे फल फूल न प्राप्त हों पर उसके अपने पत्ते तो खूब फूटते हैं। डालियां फैलती हैं और जड़ें जमती हैं। कमरे की शोभा इसी में है। इसी में देश की शोभा है। गंदी झोपड़ियों से घिरे कारखाने और मशीनें।। नेहरू का सारा वक्त आजादी के बाद इन दोनों मामलों की फिक्र करने में गुजरा।
मैंने, मनीप्लांट को शुद्ध हवा मिल सके इसलिए खिड़की के पास रख दिया है। हवा के झोंके से पत्ते धीरे धीरे हिलते हैं जैसे अखबार हाथ में ले हवा करने से किसी सुंदरी की लटें हिल रही हों। कैक्टस पर हवा आती है, नहीं भी आती। वह हवा के आश्वासन पर ही जी लेता है। अपनी प्राण शक्ति का भरपूर सदुपयोग करता है और पानी के इंतजार में वक्त गुजार देता है।
एक मित्र समझा रहे थे कि कैक्टस को पानी नहीं दिया करो ज्यादा, जड़ें सूख जाएंगी। उसके आसपास सूखी रेत डालो, खुद पनपने दो। यह निष्ठुरता मुझसे नहीं होती। मैं रोज कैक्टस में पानी देता हूं। वह बढ़ रहा है। तेजी से उसकी डालियां फूल रही हैं। वह हरा भरा दिखता है तथापि कंटीला है। मनीप्लांट की वैश्य प्रकृति है। उसमें स्निग्धता है, लोच है, यहां वहां मुड़ जाने की आदत है, जैसा मौका हो वैसा निभा लेता है, बशर्ते उसे बराबर पानी मिले यानि पूंजी का सरकुलेशन बना रहे। कैक्टस को पानी नहीं मिलता तो उसमें लोच नहीं।
वह ऐसे तना खड़ा है, क्रोध में घूरता है कि जैसे पूरी मजदूरी नहीं मिलने पर बदतमीज कुली तने हुए देखता है। यह आक्रोश, यह चिडचिड़ाहट सब स्वभाविक हैं, पर उसी के कारण बदनाम भी है बिचारा। मेरा मित्र कहता है, इसे पानी दो। पब्लिक सेक्टर में एक कारखाना डालो तो हजार गालियां सुनो। मित्र अलग अलग सलाहें देते हैं। इस कमरे में आने वाले सारे शुभचिंतक कैक्टस को अशुभ सोचते हैं। क्या होगा पब्लिक सेक्टर क्या होगा समाजवाद?
मैं तो राष्ट्रीय नीति पर चल रहा हूं, दोनों लगा रखे हें। मनीप्लांट भी कैक्टस भी। कमरे की शोभा बढ़ रही है। मेरी आर्थिक स्थिति खस्ता भी हो पर कमरा सजा हुआ लगे तो भ्रम बना रहता है। सब समझते हैं, सुख से कटती है। मैं समझता हूं आज मनीप्लांट पनपा है तो कल मनी भी आएगी। कल यह पौधा ही कल्पवृक्ष में बदल जाएगा। इसमें बजाय इन हरे पत्तों के वे हरे पत्ते उगने लगें यानि नोट दस रुपये के, तो एक पत्ता तोड़ लूं और भाजी खरीदने चला जाऊं। मनीप्लांट नाम सार्थक हो जाएगा। राज सुबह इसी उम्मीद में पानी डालता हूं। पर लगता है यहां भी निराशा ही हाथ लगेगी। मेरी लाइन ही दूसरी है। यहां पानी डालने से जड़ें सड़ती हैं। कुछ नहीं मिलता।
मात्र शोभा बढ़ती है, कमरे की, देश की, साहित्य की, संस्कृति की।