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मेरा एक दोस्त विदेश में है। भारत-पाकिस्तान लड़ाई के दिनों में मुझे उसका एक पत्र मिला। लिखा था : पिछली रात मुझे सपने में भारत माता ने दर्शन दिए। मैंने कहा, ''मां, तुम्हारी जय हो रही है। हमलावर को मारकर भगाया जा रहा है। तुम्हारे पैंतालिस करोड़ बेटे तुम्हारी विजय के लिए सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं।'' भारत माता ने कहा, "तुम्हें अपने देश की सही जानकारी नहीं है। मेरी विजय उन पैंतालिस करोड़ के कारण नहीं हो रही है। कुछ खास लोग हैं, जिनके त्याग-पुण्य से मैं जीत रही हूं।'' मैंने कहा, ''मां, वे कौन लोग हैं?'' उन्होंने कहा, "वे हर शहर में हैं।" मैंने डरते-डरते पूछा, ''मेरे शहर में कोई है?'' भारत माता ने कहा, "हां, तुम्हारे शहर में भी फर्म कुन्दनलाल सम्पतलाल के मालिक कंचन बाबू हैं।"
दोस्त, इतना कहकर भारत माता तो चली गई और मैं सुबह तक सोचता रहा कि अपने कंचन बाबू देश के लिए ऐसा क्या कर रहे हैं कि उनका नाम भारत माता की जुबान पर आ गया है। मैं सुबह उनसे मुलाकात करने चला। चौक के इस तरफ के चौराहे पर भीड़ दिखी। कंचन बाबू का नाम भी सुन पड़ा। झांककर देखा कि कंचन बाबू जूतों पर पॉलिश कर रहे हैं। पास ही एक तख्ती रखी है, जिस पर लिखा है- देश-रक्षा के लिए पॉलिश कराइए। पॉलिश की सारी आमदनी राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में जाएगी। पॉलिश करते हुए कंचन बाबू बहुत अच्छे लग रहे थे। वह दुकान पर इतने अच्छे नहीं लगते थे, जितने यहां। हो सकता है, देश-प्रेम की भावना उन्हें तेज दे रही हो।
यह भी हो सकता है कि उन्होंने सही धंधा अब पाया हो। वहां बात करने का मौका नहीं था। वह बहुत व्यस्त थे। ऐसा लगता था, जैसे भारतीय फौज मोर्चे पर खड़ी इंतजार कर रही है कि कब कंचन बाबू पॉलिश करके तेरह पैसे उसे भेजें और वह उसकी गोली खरीदकर दुश्मन पर दागे। लगता था, वह सारी भारतीय फौज का खर्च पूरा कर रहे हैं और सिर्फ उनका खयाल करके फौज लड़ रही है। मैं डरा कि इस वक्त इन्हें छेड़ने से कहीं अपनी फौज का गोला-बारूद कम न पड़ जाए। मैं शाम को उनके घर गया।
मैंने कहा, "कंचन बाबू, आपका नाम भारत माता विदेश में ले रही हैं।" "तुमसे किसने कहा? क्या भारत माता से तुम्हारा भी कोई संबंध है?" "नहीं, कंचन बाबू, मैंने तो उनकी सिर्फ जय बोली है। मगर आपके प्रति उनकी विशेष ममता है। विदेश में मेरे एक दोस्त को उन्होंने सपने में बताया कि जिन कुछ लोगों के त्याग और पुण्य से उनकी जीत हो रही है, उनमें आप भी हैं। "कंचन बाबू सकुचा गए। बोले, "अरे भई, यह तो उनकी कृपा है। मुझ क्षुद्र का नाम याद रखती हैं। इधर ये इनकम टैक्सवाले हैं कि हर बार उन्हें खुश रखता हूं और वे हर बार भूल जाते हैं। पता नहीं, भारत माता इनकम टैक्स का महकमा बंद क्यों नहीं कर देतीं!" मैंने कहा, "आपसे वह खुश हैं।
उनसे कहिए न!" वह बोले, "हां, मुझे मिलें, तो मैं उनसे कहूं कि माता, तुम्हारे इतने महकमे चलते हैं, इस एक को बंद ही करा दीजिए न। नए इनकम टैक्स अफसर को तो उनसे कहकर बरखास्त करा दूंगा।" मैंने कहा, "कंचन बाबू, आपने देश-सेवा का यह तरीका क्यों अपनाया- यही पॉलिशवाला?" वह बोले, "देश की पुकार मेरी आत्मा में गूंज उठी और मैंने प्रण किया कि मातृभूमि के लिए मैं पॉलिश करूंगा। मैं हफ्ते में दो दिन दो-दो घंटे पॉलिश करता हूं और सारी आमदनी सुरक्षा कोष में दे देता हूं। मैं यह सिलसिला जारी रखूंगा।
एक बार जो चीज उठा ली, उसे मैं जल्दी नहीं छोड़ता। एक बार वनस्पति घी की एजेंसी ले ली, तो अभी तक चल रही है।" मैं उनकी तरफ देख रहा था। वह नजर बचा रहे थे। बचाते-बचाते भी नजर मिल गई, तो मैं हंस पड़ा। वह भी हंस दिए। बोले, "तुम्हें भरोसा नहीं हुआ। अच्छा, सच बताऊं?" "हां, बिल्कुल सच।" "तो सुनो। यार, ये तुम्हारे चंदे वाले बहुत तंग करते थे।" "कौन चंदे वाले?" "अरे, यही राष्ट्रीय सुरक्षा कोषवाले। यों तो हम चंदे वालों के मारे हमेशा परेशान रहते हैं, रोज ही कोई चंदा लगा रहता है- कभी गणेशोत्सव है, तो कभी दुर्गोत्सव, कभी विधवा आश्रम वाले आ जाते हैं, तो कभी अनाथालय वाले। अब ये राष्ट्रीय सुरक्षा कोषवाले आने लगे हैं।" "मगर, कंचन बाबू, अनाथालय का चंदा और राष्ट्रीय सुरक्षा कोष क्या एक-से हैं?" "भई, अपने लिए तो एक ही हैं। चंदा चंदा सब एक है।