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बदलते जमाने में बहुत कुछ बदला। पढ़ाई-लिखाई से लेकर कपड़ा-लत्ता तक और मार-पिटाई से लेकर वेतन-भत्ता तक। बच्चों के स्कूल की पढ़ाई का पैटर्न इंजीनियरिंग जैसा लगने लगा है। जो नौनिहाल पहले स्कूलों में दो दुनी चार, पांच-पंचे पच्चीस पढ़ा करते थे, वही लोग अब बड़े होकर स्कूलों में बच्चों के मम्मी पापा को नानी याद दिला देते हैं। स्कूलों में ऐसे होमवर्क दिए जाते हैं जो बच्चों के बस में तो होते ही नहीं, बल्कि उनके पेरेंट्स के लिए भी सिर दर्द बन जाते हैं। नर्सरी से लेकर 12वीं तक ऐसे होमवर्क की लंबी लिस्ट है।
तुम कल पृथ्वी बन के आना, नहीं-नहीं.. भिंडी बन जाना
बित्ता भर का बच्चा अभी स्कूल जाना शुरू ही करता है कि फैंसी ड्रेस कॉम्पटीशन नाम का पहला महामुकाबला उनके सामने ला दिया जाता है। न कोई बच्चे से पूछता है और न ही कोई बताता है। स्कूल की डायरी में लिखा संदेश घर तक पहुंच जाता है और शुरू हो जाती है तैयारी। नन्हे से बच्चे को कभी पृथ्वी बना दिया जाता है तो कभी भिंडी। जन्माष्टमी के त्योहार पर तो नटखट नंदलाल बनना तय है। अगर 26 जनवरी या 15 अगस्त का मौका है तो बच्चे की क्यूट शक्ल में महान विभूतियों की झलक भी दिखेगी। ये अत्याचार उन बच्चों के मम्मी पापाओं पर होता है जिन्होंने हाल ही में बच्चों का दाखिला स्कूल में करवाया होता है।
ये अत्याचार होता है कक्षा 1 से लेकर कक्षा 5 तक के स्टूडेंट्स की फैमिली पर। साइंस के प्रति उनकी उत्सुकता जगाने के चक्कर में स्कूल में उन्हें साइंस के ऐसे प्रोजेक्ट्स दे दिए जाते हैं जो रुचि जगाने के बजाय उन्हें कंफ्यूज करते ज्यादा लगते हैं। नतीजतन ज्यादतर बच्चे मार्केट से बने बनाए प्रोजेक्ट्स खरीद लेते हैं। सीखते-वीखते कुछ नहीं, मां-बाप के लिए एक मुसीबत जरूर खड़ी हो जाती है।
आर्ट एंड क्राफ्ट के सब्जेक्ट का हिडन नाम खर्चा था। क्रिएटीविटी बढ़ाने के नाम पर स्कूल में बड़े बड़े प्रोजेक्ट होमवर्क में ऑर्डर किए जाते हैं। 90 के दशक से शुरू हुआ ये सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। इस होमवर्क में ताजमहल से लेकर टोकरी बनाने तक का काम दिया जाता है। कुछ काबिल बच्चे तो बना लेते हैं लेकिन ज्यादातर वहीं से ले आते हैं जहां से साइंस के प्रोजेक्ट्स खरीदते हैं।
8वीं की दहलीज पार करते ही अचानक से ऐसा दौर आता है जब बच्चों की चार्ट पेपर खरीदने की टेंडेंसी एकाएक बढ़ जाती है। हर सब्जेक्ट, हर टॉपिक को चार्ट पेपर में उतार दिया जाता है। पेपर पर डिजाइन बनाने के लिए तमाम तरह के स्केेच-पेन, ब्रश खरीदने पड़ते हैं। शाम को कई पेरेंट्स आपको स्टेशनरी की दुकान पर दिख जाएंगे। ये वही लोग हैं जिनके बच्चे 9-12वीं क्लास के स्टूडेंट हैं।