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विदेशी यात्राओं को लेकर जो गुणा गणित की जाती है, शरद जोशी का यह लेख उन पर से पर्दा उठा रहा है। यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है। जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा किया गया है।
हमारा सारा राष्ट्रीय स्वाभिमान किसी भी विदेशी दूतावास के दरवाजे पर पहुंच एकाएक पिघलने लगता है। अन्दर से व्हिस्की, शैम्पेन और वोडकाओं की नाना प्रकार की गन्ध आती है, विदेशी सिगरेटों और चुरुटों की कल्पना मसूड़ों में गुदगुदी उत्पन्न करती है और अगले ही क्षण महान पुरातन संस्कृति की दावेदारी का बिल्ला लटकाये हम उस सनातन ब्राह्मण की भिखारी मुद्रा में आ जाते हैं, जो सदियों से यजमान के द्वारे खड़ा है।
अभिनन्दन करवाने के लए हमने किस-किस दरवाजे की दस्तक नहीं दी है। स्वागत के प्यासे हम कुलांचे भरते कहां नहीं दौड़े? वसुधा को शायद हमने जीमने-खाने की सुविधा के लिए कुटुम्ब माना है।
और दूतावास तो भाईचारे के अड्डे हैं, वहां सौजन्य सत्कार का बजट होता है, अतिथि उनके लिए देव होता है। जो कि देवभूमि के वासी हम हैं। हमें खिलाओ, हमें निमन्त्रण दो, हमारे होनहार कॉन्वेण्ट ज्ञानी बालक को स्कॉलरशिप दो, इसके अलावा जो भी हो सके, वह दो।
हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है और लोग ऐन नदी किनारे बजाय सिंचाई के पानी का इन्तजाम करने की भीख मांगते हैं। अत: हमें दो, बस दो। हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में शायद दूतावासों की यही उपयोगिता रह गयी है।
समाज के ऊपर उठने की नसैनी पर और और ऊपर चढ़ने की आकांक्षा भारतवासी जानता है कि यदि जीवन जीने का सुख है तो समन्दर के उस पार है, इस पार नहीं, और दूतावास के चक्कर काटने से संस्कृति, साहित्य, ज्ञान, मैत्री, आदान-प्रदान आदि किसी भी नाम से एक सेंध लगती है, चोर रास्ता खुलता है-- नाना स्वाद की दारुओं, कैबरे लड़कियों, सेक्स शॉप, रेस्त्राओं के देशों में प्रवेश का।
जीवन सार्थक होता है। बेटी फोन पर जवाब देती गर्व से कह सकती है, ‘पापा तो फॉरेन गये हैं’ कितना उच्च क्षण है हमारी भिखारी रीढ़हीन प्रतिभा का।
और इसके लिए आप कविता का भी इस्तेमाल करें, तो वह अन्तर्राष्ट्रीयता के खाते में डलेगा, विदेश यात्रा की चाह जिस हिन्दी कवि को लग जाती है, वह मूल कविता के अधिक महत्व विदेशी कविताओं के अनुवाद करने के काम को देता है।
वह समझ जाता है कि हिन्दी में मौलिक रचना आखिर क्या धरती फोड़ लेगी। इस देश में होना क्या है और जो होगा भी तो क्या होा! हमारी कविता के अनुवाद हों और यह तब होंगे, जब पहले उनकी कविताओं के अनुवाद कर हम पेश करें कि हुजूर हाजिर हैं, एक विदेश यात्रा का मौका इनायत करें, कविता के नाम पर, भगवान आपका जोड़ा सलामत रखे मालिक।
कत्थकिये चले गये, सितारिये चले गये, प्रोफेसरों, एडीटरों को मौका मिल गया। साहब हम कवि हैं। ऑरिजनल भी लिखते हैं, तो बाहरी मुल्कों के असर में लिखते हैं और इधर तो लिखा भी नहीं, सिर्फ अनुवाद किया है, आपके मुल्क की कविताओं का! हुजूर एक नजर इधर डाल लें तो, हें हें पासपोर्ट बनवा लिया है मैने। जी दिसम्बर में सही, आपकी कृपा।
कोई चक्कर चलाओ, कोई बहाना खोजो, कहीं से मौका देखो और लगाओ चक्कर विदेश का।
ललचाई नजरों से देखता है महत्वकांक्षी भारतवासी दूतावास के दिल्ली दरवाजों की तरफ सीना फुलाना सौदेबाजी की एक अदा है, भोली जिज्ञासाओं के तले सपने पनपते हैं, मध्यवर्गी इच्छाओं के। सारी सम्स्याओं के अन्तिम हल इस देश में व्हिस्की खोज लेती है।
जो मामले नियम, परम्परा, मूल्यों और मजबूरियों की मर्यादाओं में नहीं निपटते, वे व्हिस्की की बोतल के इर्द-गिर्द निपट जाते हैं। अत: वही अन्तिम मूल्यवान तलाश रह गयी है जीवन की और दूतावास उसके अखूटस अनन्त भण्डार है।
जीभ लपलपाती है अन्तर्राष्ट्रीयता की दिशा में। भारतीय प्रतभा उन प्रश्नों के अविष्कार में व्यस्त हो जाती है, जिसके उत्तर देश की फटेहाल चिथड़ा परिधि में नहीं मिलते।
सुरसा अपना शरीर बढ़ाती है, अन्य भारतवासियों की तुलना में और एक ऐसी ही ऊंचाई तक जाने का गुबारा आभास उत्पन्न करती है कि अगले डोलीगेशन की सूची में नाम डल जाता है और तब वही भारतीय अपना सीना सिकोड़े, कन्धे उचकाता,पैर फेंकता एयरलाइन्स की सीढ़ियों की तरफ लपकता चला जाता है। बस हो गया, जो कुछ अर्थवान होना था, हो गया।
कोई कैसे गया, इसकी एक कहानी है और हर कहानी अलग है। दांव है, अदा है, योग्यता का एक ठुमका प्रदर्शन है, जो एक खास अखबारी और सेमिनारी ऊंचाई पर करना होता है, जो वह करता है, एक बार, दो बार, जरूरी हुआ तो दस बार और तब द्वार खुलता है।
अब तब एक चौंकानेवाली खबर फैलती है-- वे तो जा रहे हैं। हां, वे तो जा रहे हैं, इसी पच्चीस को, हो गया उनका, चलो अच्छा हुआ कब लौट रहे हैं, छह वीक का है शायद बढ़ जाए, कोशिश कर रहे हैं।