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एक थे अफसर। बड़े बंगले में रहने वाले। ऊंची कुर्सी पर विराजमान। नौकर-चाकर, ड्राइवर, आया, जिसको आवाज लगाएं, वही हाजिर। बड़े रौब थे उनके। कमाल का प्रभाव। जिसका चाहें तबादला कर दें। ऐसा पेंच लगाएं कि उनके विरोधी को खाने को रोटी न मिले। जिस पर मेहरबान, उसकी सारी उंगलियां घी में। ज्ञानी-ध्यानी उनके चरण चाटें। ड्राइंगरूम जैसे अखाड़ा अक्लमंदों काा। जिसका नाम लें, वो ही बोले, ''यस सर''! जिसे देखकर मुस्कराएं, सो ही निहाल। दिमाग के तेज। व्यवहार के मीठे। जिसकी खाट खड़ी करनी हो, उससे बड़े मधुर। नीति में चाणक्य, कर्म से नादिरशाह। चित भी मेरी, पट भी मेरी, अण्टा मेरे बाप का। अफसर-से-अफसर। बड़े अफसर।
अफसर को साहित्य-कला से बड़ा प्रेम। कविता घर में पानी भरे। आलोचना रोज झाड़ू लगाये। चिंतन उनके कपड़े धोये। लेख बिछायें। किताबों पर बैठें। कहानी जूतों के पास पड़ी रहे। अफसरी भी करें और साहित्य भी करें। जब जो चाहें, करें। मन के राजा। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी उनके बंगले की ओर टकटकी लगाकर देखें। हुजूर की कृपा बनी रहे। बड़े-बड़े किताबों के लिखैया, कविता रचैया, टिप्पणीकार, गुनीजनों से प्रश्न पूछ इण्टरव्यू लिखने वाले कला के समीक्षक, विदेशी को देशी और देशी को विदेशी करने में माहिर, अफसर के दरबार में हाजिरी भरें। जो आज नहीं आया, वो कल जरूर आये। जो सुबह नहीं आया, सो शाम को हाजिर। मालिक सलाम। हम बुद्धिजीवी। हमको टुकड़ा दो खाने को। हमें चाय-कॉफी, हमें दारू हमें विचार, हमें दृष्टि। हमें धारणा। हमें रास्ता बताओ, मालिक हम क्या लिखें? क्या करें ?
अफसर दिमाग का तेज। वो नित नयी बात सोचे। ज्ञान बघारे। बड़े-बड़े मार्क्सवादी उससे सलाह लें। क्यों साहब, अब देश में क्रांति लाने के लिए क्या करें। अफसर कहे, हमारी सुनो।
सब सुनें। सुनकर गुनें। प्रशंसा करते वक्त लौटें। देखो कैसी बढ़िया बात कही साहब ने समाज पर, साहित्य पर; सबकी मति साफ करके धर दी। कविजन अफसर से खुश। अफसर कविजन से खुश। ऐसी ही धीरे-धीरे साहित्य का विकास जारी था।
एक दिन अफसर ने अपने बंगले की खिड़की से चिड़िया देखी। उसने कविजन से कही। काहे रे, तुम चिड़ियों पर कविता काहे नहीं लिखते ? कविजन ने सुनी, तो शरम खा गये। आपस में बोले कि यह बात हमें अब तक क्यों नहीं सूझी। अरे चिड़िया तो हम रोज देखते होंगे। फिर अब तक कविता काहे नहीं लिखी ? आज छुट्टी का दिन है। आज हम अपने घर में बैठ चिड़ियों पर कविता लिखेंगे।
छुट्टी का दिन। कवि अपने-अपने घर बैठे। अफसर ने सोचा। अच्छी याद आयी। चोल, आज चिड़िया का शिकार खेलेंगे। वो बंदूक उठा जंगल। अफसर तो अफसर, उसको कौन रोक सके ?
कवि ने लिखा- जंगल में चिड़िया। ओ तुम नन्हें पंखोंवाली ! ओ तुम फुदक-फुदक। इस डाली से उस डाली। अरे हमारे पास क्यों नहीं आती ? अरे दूर-दूर क्यों ? अरी ओ चिड़िया ! तू मेरी आंख तू मेरा मन।
उधर, जंगल में गोली छूटी दन्न। छटपटा के गिर गयी चिड़िया। मर गयी चिड़िया। अफसर को निशानो। चिड़िया का क्या बिसात? ढेर हो गयी साहब के चरण में।
दूसरे कवि ने लिखा, आकाश में मेरा बाहुपाश। बाहुपाश में कित्ती चिड़ियां, आसमान भर-भर के चिड़ियां। चहक रही घर-घर में चिड़िया। चिड़िया, चिड़िया, चिड़िया। ऊपर से उड़ती है मेरे। कंधे पर बैठी है मेरे। सपने में आती है मेरे। चिड़िया, जिसके पंख सुनहरे। चिड़िया, जिसकी मीठी बोली।
उधर, अफसर ने मारी गोली। धांय। भरी बंदूक, अकेला अफसर। आसमान भर-भर के चिड़ियां। पक्का निशाना, अपार समय, कौन रोक सकता उसे ? उड़ती को मारा। बैठो को मारा। छुपती को मारा। अफसर की गोली जैसे फाइल पर ऑर्डर। जो हो गया, सो हो गया। मरी, सो मरी। अब कोई हेरफेर संभव नहीं।
इधर तीसरे कवि ने चिड़िया से प्रश्न किया। ओ नन्हीं, ओ मीठी, ओ मेरी, ओ चिड़िया, पूरे मौसम तू कहां रही ? किस अजाने देश होकर आयी हो तुम ? प्यारी। क्या लायी हो संदेशा ?. ओ पंखिनी, ओ विहंगिनी। पूरे मौसम, हरसिंगार ने ताकी तेरी राह। इस बाग की डाली-डाली को भी तेरी चाह, चुप्पी साधे क्यों बैठी हो, क्या कर आयी गुनाह ? ओ नन्ही, ओ मीठी, पूरे मौसम तू कहां रही ?
और उधर एक और चिड़िया मरी। मनमौजी अफसर खुलकर खेला। धांय, धांय। एक-के-बाद-एक चिड़िया। मारता जाए, बटोरता जाए। बड़ा सफल दिन था अफसर का।
कवि लिख रहा था। एक चिड़िया मेरे मन में है। जाने कहां उड़कर जाती है। उसके साथ जाता हूं मैं। एक चिड़िया मेरे मन में है। एक चिड़िया मेरे तन में है। झूम-झूम गाता हूं जब। साथ में गाती है वह। एक चिड़िया।
शाम हुई। सूरज किरणें फेंकने से फरागत हुआ। अफसर अपनी जीप में घर लौटा। कवियों ने कोरे-कोरे ताजा धुले कपड़े पहने और कविता की डायरी बगल में दाब अफसर के बंगले की तरफ चले। ''आहा, आइए, आइए।''
अफसर बड़े मिलनसार। स्वभाव के रसिक, रह-रह के खुश हों। रह-रहकर दांत निपोरें। कला के प्रेमी। कलाकारों के करदान। दायें पानदान, बायें पीकदान। बड़े दिलदार। बोले, ''आइए आइए। आज सारा दिन कैसा रहा ?''
कविगण बोले, ''चिड़ियों पर कविता लिखी।''
'' वाह वाह, सुनाइए, सुनाइए।''
कवि कविता पढ़ने लगे। अफसर सुनने लगे।
अफसर सर्वज्ञानी। आधुनिक साहित्य उनकी बगल में। युवा कविता उनके ताक में धरी। ड्राअर में समीक्षा की नजर। गौर से सुनें। हर कविता के अंदर चिड़िया की परख करें। हर चिड़िया में कविता की जांच करें। अच्छे-अच्छे सारे शब्द बाप से मिले। परख करें। हर चिड़िया में कविता की जांच करें। अच्छे-अच्चे सारे शब्द बाप से मिले। मुहावरे ससुराल से दहेज में। कवि पढ़ें। अफसर गौर करें।
अफसर ने सब कविता पर कमेंट करी। कहने लगो, ''तुमारी में छायावाद ज्यादा। तुमारी में प्रगतिवाद कम, तुमारी कविता कमजोर। तुमारी कविता अच्छी, पर चिड़िया कमजोर। तुमने आकाशवाली बात सुंदर कही। और तुमारी कविता और जो भी हो, आधुनिक नहीं। ''
कवि मित्र अचरज में। कैसे ज्ञानी हमारे अफसर ! कैसी दिलचस्पी! कैसा सरोकार! कैसी पैनी नजर से जांचनेवाले !
अफसर ठहरे शिकारी। पत्तों के पीछे छुपी चिड़िया भांप लें तो क्या कविता में छिपी चिड़िया न पहचान सकें। बात में बात चली। छिलका-दर-छिलका। तुम्हारी चिड़िया ऐसी। तुम्हारी चिड़िया वैसी।
तभी अफसर की औरत खाना लेकर आयी, सब कवियों के लिए, बोली, ''आप सबकी चिड़िया छोड़ो। बोली हमारी चिड़िया कैसी?''
प्लेट-पर-प्लेट लगी। चिड़िया दम। चिड़िया दही वाली। चिड़िया मेथी, चिड़िया मुगलई। चिड़िया मसालेवाली। आज साहब शिकार खेलकर आये हैं। चखकर देखिए कैसी बनी।
सब कवियों ने चखी। ''वाह भाभी, वाह! आपकी चिड़िया सबसे अच्छी!''
ऐसे थे अफसर। ज्ञानी दिलदार और निशाने के पक्के। कवियों से जैसा लिखवाते, वैसा उन्हें खिलाते-पिलाते भी।
रात हुई। कविगण घर लौटे। भूल गये कि उन्होंने आज चिड़िया पर कविता बिठायी थी या कविता पर चिड़िया। सबके मुंह पर एक ही बात थी। आज जैसी चिड़िया खायी, वैसी तो कभी न खायी ! वाह!
धन्य हैं कवि, धन्य हैं अफसर, धन्य हो गयी कविताओं में पकती भारत की चिड़िया।
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।