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गरीब, गरीबी, भूख... अगर देश से हट गई तो कई लोगों के कारोबारी हित बुरी तरह से प्रभावित हो सकते हैं। व्यंग्यकार शरद जोशी के शब्दों में कहें तो- गरीबी हट गई, तो लेखक लिखेंगे किस विषय पर? बात सही है। ...और गरीबी नहीं रही तो नेताओं के भाषणों के छूछे (खाली) पड़ जाने का संकट भी तो है। आजादी के 7 दशक बाद भी हम गरीबी हटाने के जुमले ही तो सुन रहे हैं। प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी ने वर्षों पहले गरीबी और देश की जमीनी समस्याओं पर अपने व्यंग्य लेख 'श्री गणेशाय नम:' के जरिये जो तंज कसा था, उसकी तासीर आज भी वैसी ही है। फिरकी टीम भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी किताब 'यथासम्भव' से उनके व्यंग्य लेख को ज्यों का त्यों यहां पेश कर रही है। आप चाहें तो अपनी प्रतिक्रियाएं हमारे कमेंट्स बॉक्स में दे सकते हैं।
अथ श्री गणेशाय नम:, बात गणेश जी से शुरू की जाए, वह धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाएगी। या चूहे से आरंभ करें और वह श्री गणेश तक पहुँचे। या पढ़ने-लिखने की चर्चा की जाए। श्री गणेश ज्ञान और बुद्धि के देवता हैं। इस कारण सदैव अल्पमत में रहते होंगे, पर हैं तो देवता। सबसे पहले वे ही पूजे जाते हैं। आखिर में वे ही पानी में उतारे जाते हैं। पढ़ने-लिखने की चर्चा को छोड़ आप श्री गणेश की कथा पर आ सकते हैं।
विषय क्या है, चूहा या श्री गणेश? भई, इस देश में कुल मिलाकर विषय एक ही होता है - गरीबी। सारे विषय उसी से जन्म लेते हैं। कविता कर लो या उपन्यास, बात वही होगी। गरीबी हटाने की बात करने वाले बातें कहते रहे, पर यह न सोचा कि गरीबी हट गई, तो लेखक लिखेंगे किस विषय पर? उन्हें लगा, ये साहित्य वाले लोग 'गरीबी हटाओ' के खिलाफ हैं। तो इस पर उतर आए कि चलो साहित्य हटाओ।
वह नहीं हट सकता। श्री गणेश से चालू हुआ है। वे ही उसके आदि देवता हैं। 'ऋद्धि-सिद्धि' आसपास रहती हैं, बीच में लेखन का काम चलता है। चूहा पैरों के पास बैठा रहता है। रचना खराब हुई कि गणेश जी महाराज उसे चूहे को दे देते हैं। ले भई, कुतर खा। पर ऐसा प्राय: नहीं होता। 'निज कवित्त' के फीका न लगने का नियम गणेश जी पर भी उतना ही लागू होता है। चूहा परेशान रहता है। महाराज, कुछ खाने को दीजिए। गणेश जी सूँड पर हाथ फेर गंभीरता से कहते हैं, लेखक के परिवार के सदस्य हो, खाने-पीने की बात मत किया करो। भूखे रहना सीखो। बड़ा ऊँचा मजाक-बोध है श्री गणेश जी का (अच्छे लेखकों में रहता है) चूहा सुन मुस्कुराता है। जानता है, गणेश जी डायटिंग पर भरोसा नहीं करते, तबीयत से खाते हैं, लिखते हैं, अब निरंतर बैठे लिखते रहने से शरीर में भरीपन तो आ ही जाता है।
चूहे को साहित्य से क्या करना। उसे चाहिए अनाज के दाने। कुतरे, खुश रहे। सामान्य जन की आवश्यकता उसकी आवश्यकता है। खाने, पेट भरने को हर गणेश-भक्त को चाहिए। भूखे भजन न होई गणेशा। या जो भी हो। साहित्य से पैसा कमाने का घनघोर विरोध वे ही करते हैं, जिनकी लेक्चररशिप पक्की हो गई और वेतन नए बढ़े हुए ग्रेड में मिल रहा है। जो अफसर हैं, जिन्हें पेंशन की सुविधा है, वे साहित्य में क्रांति-क्रांति की उछाल भरते रहते हैं। चूहा असल गणेश-भक्त है।
राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचिए। पता है आपको, चूहों के कारण देश का कितना अनाज बरबाद होता है। चूहा शत्रु है। देश के गोदामों में घुसा चोर है। हमारे उत्पादन का एक बड़ा प्रतिशत चूहों के पेट में चला जाता है। चूहे से अनाज की रक्षा हमारी राष्ट्रीय समस्या है। कभी विचार किया अपने इस पर? बड़े गणेश-भक्त बनते हैं।
विचार किया। यों ही गणेश-भक्त नहीं बन गए। समस्या पर विचार करना हमारा पुराना मर्ज है। हा-हा-हा, जरा सुनिए।
आपको पता है, दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है। यह बात सिर्फ अनार और पपीते को लेकर ही सही नहीं है, अनाज के छोटे-छोटे दाने को लेकर भी सही है। हर दाने पर नाम लिखा रहता है खाने वाले का। कुछ देर पहले जो परांठा मैंने अचार से लगाकर खाया था, उस पर जगह-जगह शरद जोशी लिखा हुआ था। छोटा-मोटा काम नहीं है, इतने दानों पर नाम लिखना। यह काम कौन कर सकता है? गणेश जी, और कौन? वे ही लिख सकते हैं। और किसी के बस का नहीं है यह काम। परिश्रम, लगन और न्याय की जरूरत होती है। साहित्य वालों को यह काम सौंप दो, दाने-दाने पर नाम लिखने का। बस, अपने यार-दोस्तों के नाम लिखेंगे, बाकी को छोड़ देंगे भूखा मरने को। उनके नाम ही नहीं लिखेंगे दानों पर। जैसे दानों पर नाम नहीं, साहित्य का इतिहास लिखना हो, या पिछले दशक के लेखन का आकलन करना हो कि जिससे असहमत थे, उसका नाम भूल गए।
दृश्य यों होता है। गणेश जी बैठे हैं ऊपर। तेजी से दानों पर नाम लिखने में लगे हैं। अधिष्ठाता होने के कारण उन्हें पता है, कहाँ क्या उत्पन्न होगा। उनका काम है, दानों पर नाम लिखना ताकि जिसका जो दाना हो, वह उस शख्स को मिल जाए। काम जारी है। चूहा नीचे बैठा है। बीच-बीच में गुहार लगाता है, हमारा भी ध्यान रखना प्रभु, ऐसा न हो कि चूहों को भूल जाओ। इस पर गणेश जी मन ही मन मुस्कराते हैं। उनके दाँत दिखाने के और हैं, मुस्कराने के और। फिर कुछ दानों पर नाम लिखना छोड़ देते हैं, भूल जाते हैं। वे दाने जिन पर किसी का नाम नहीं लिखा, सब चूहे के। चूहा गोदामों में घुसता है। जिन दानों पर नाम नहीं होते, उन्हें कुतर कर खाता रहता है। गणेश-महिमा।
एक दिन चूहा कहने लगा, गणेश जी महाराज! दाने-दाने पर मानव का नाम लिखने का कष्ट तो आप कर ही रहे हैं। थोड़ी कृपा और करो। नेक घर का पता और डाल दो नाम के साथ, तो बेचारों को इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। मारे-मारे फिरते हैं, अपना नाम लिखा दाना तलाशते। भोपाल से बंबई और दिल्ली तलक। घर का पता लिखा होगा, तो दाना घर पहुँच जाएगा, ऐसे जगह-जगह तो नहीं भटकेंगे।
अपने जाने चूहा बड़ी समाजवादी बात कह रहा था, पर घुड़क दिया गणेशजी ने। चुप रहो, ज्यादा चूं-चूं मत करो।
नाम लिख-लिख श्री गणेश यों ही थके रहते हैं, ऊपर से पता भी लिखने बैठो। चूहे का क्या, लगाई जुबान ताल से और कह दिया। न्याय स्थापित कीजिए, दोनों का ठीक-ठाक पेट भर बँटवारा कीजिए। नाम लिखने की भी जरूरत नहीं। गणेश जी कब तक बैठे-बैठे लिखते रहेंगे?
प्रश्न यह है, तब चूहों का क्या होगा? वे जो हर व्यवसाय में अपने प्रतिशत कुतरते रहते हैं, उनका क्या होगा?
वही हुआ ना! बात श्री गणेश से शुरू कीजिए तो धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाती है। क्या कीजिएगा?